पहले दौर में कम मतदान का मतलब क्या?

अनिल जैन
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015 (18:39 IST)
विधानसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान में मतदाताओं ने वह उत्साह नहीं दिखाया, जिसकी कि उम्मीद की जा रही थी। पूर्वी बिहार के दस जिलों की 49 सीटों पर महज 57 फीसदी वोट पड़े। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में भी इस इलाके में इतने ही वोट पड़े थे। उससे पहले 2010 के विधानसभा चुनाव में इन 49 सीटों पर 51 फीसदी के करीब वोट पड़े थे। उस लिहाज से इस बार का आंकड़ा  छह फीसदी ज्यादा है। चुनाव में जिस कदर ध्रुवीकरण हुआ है, दोनों प्रमुख गठबंधन करो या मरो के जिस अंदाज में चुनाव लड़ रहे हैं, उससे वोटिंग बढ़नी चाहिए थी पर नहीं बढ़ी। यह हैरान करने वाली बात है।
ध्यान रहे नीतीश-लालू के महागठबंधन से छिटके मुलायमसिंह का तीसरा मोर्चा और छह पार्टियों का वामपंथी मोर्चा भी चुनाव मैदान में ताल ठोक रहा है। दोनों मोर्चों के उम्मीदवार हर सीट पर मौजूद हैं। इस वजह से भी मतदान बढ़ना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जिस इलाके में मतदान हुआ उसका एक बड़ा हिस्सा नक्सलियों के प्रभाव वाला है, इसलिए मतदान कुछ कम हुआ, लेकिन नक्सली प्रभाव से बाहर के इलाकों में भी मतदान का प्रतिशत बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। समस्तीपुर, खगड़िया और भागलपुर इन तीनों जिलों में ही मतदान 60 फीसदी पहुंचा है।
 
कम मतदान की व्याख्या पारंपरिक फार्मूले से की जाए तो यह सत्तारूढ़ दल या मोर्चे के लिए फायदेमंद माना जा सकता है। इस लिहाज से जनता दल (जदयू), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस के महागठबंधन के लिए यह संतोष की बात हो सकती है कि भाजपा की अपील के बावजूद परिवर्तन के लिए लोग बहुत उत्साह से नहीं निकले। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के पूरे कुनबे के साथ ही रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा परिवर्तन के लिए ही वोट मांग रहे हैं। आमतौर पर परिवर्तन की लहर में भारी मतदान होता है। सो, पहले चरण में भारी मतदान नहीं होना इस बात का संकेत हो सकता है कि परिवर्तन के लिए नहीं, बल्कि यथास्थिति बनाए रखने के लिए मतदान हुआ है।
 
लेकिन इतने सरल तरीके से भी आकलन नहीं होना चाहिए। जमीनी हालात को देखते हुए कम मतदान होना भाजपा के लिए भी सुकून वाली बात हो सकती है। भाजपा के नेता इस चरण को लेकर चिंता में थे। पिछले 20 साल से भाजपा इस इलाके की ज्यादातर सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही थी। उसकी सहयोगी पार्टियों का भी बहुत मजबूत आधार इस इलाके मे नहीं है।
 
जदयू के मजबूत आधार को देखते हुए राजद ने पहले चरण में अपनी कई सीटें उसके लिए छोड़ी। सो, यह संभव है कि जदयू के ज्यादा उम्मीदवार होने की वजह से राजद के पारंपरिक जनाधार यानी यादव मतदाताओं ने बहुत जोश नहीं दिखाया हो। इसलिए मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ा।
 
जाहिर है किसी खास फार्मूले से मतदाताओं के रुझान का आकलन संभव नहीं है। असल नतीजे इस बात पर निर्भर करेंगे कि पार्टियों ने अपना कोर वोट डलवाया है या नहीं और सहयोगी पार्टियों के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हुए या नहीं। यह भी ध्यान रखना होगा कि तीसरा मोर्चा और वाम मोर्चा कितने वोट काटने में कामयाब हुआ है? बेगूसराय, खगड़िया और समस्तीपुर के इलाके में आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर वाम दलों का असर रहा है। इन्हीं इलाकों मे सबसे ज्यादा वोटिंग हुई है। सो, इनको मिले वोट का नतीजों पर बड़ा असर होगा।
 
इसी तरह कम वोटिंग के बावजूद यह दिलचस्प है कि महिलाओं ने इस बार भी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मतदान किया। 2010 में ज्यादातर महिलाओं ने नीतीश के पक्ष में वोट दिया था, जबकि 2014 में उनका ज्यादातर वोट नरेंद्र मोदी को गया था। सो, इस बार दोनों यह वोट मिलने का दावा कर सकते है। हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 22 से 25 हजार नए मतदाता हैं। उनका रुझान भी नतीजों को प्रभावित करेगा।
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