कहते हैं कि शिक्षा संस्थान अपने विद्यार्थियों की छुपी प्रतिभा को उजागर करने का एक सशक्त माध्यम बनते हैं। संस्थान से निकलकर अपने 'निज' के बूते पर 'वह' कितना कुछ और कर पाता है, यह उसकी कर्मठता पर निर्भर करता है। प्रभाकर माचवे, रमेश बक्षी, ममता कालिया (अग्रवाल), सरोजकुमार, वेदप्रताप वैदिक की अपनी-अपनी धुन, लगन, अपने-अपने दौर में उनकी अपनी मातृसंस्था 'इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज' से ही परवान चढ़ी और ऐसा ही कुछ प्रसिद्ध पार्श्वगायक व अभिनेता बन ख्याति अर्जित करने वाले किशोरकुमार गांगुली के साथ भी हुआ।
खंडवा से इंदौर आकर जुलाई 1946 में दो किशोर (किशोरकुमार-अनूपकुमार) कैनेडियन मिशन द्वारा स्थापित प्रदेश की पुरातन शिक्षण संस्था इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज में प्रथम वर्ष में प्रवेश लेते हैं व परिसर में स्थित 'ओल्ड होस्टल' के कमरा नं. 3 व 4 में ठहर जाते हैं। 'ब्रांसन हाल' बनता है 'किशोर' के भविष्य के गायन-अभिनय का रंगमंच और कॉलेज प्रांगण में उभरा हुआ 'इमली का वृक्ष' बनता है इस बात का साक्षी कि 'वे' सुबहोशाम अपने कमरे में आते-जाते कुछ न कुछ मौलिक गुनगुनाया करते थे, धुनों का सृजन किया करते थे, इस भाव से कि 'मुझे भी कुछ बनना है।'
' पड़ोसन' में सुनील दत्त खिड़की पर आते हैं, गीत गाते हैं 'मेरे सामने वाली खिड़की में' तथा 'एक चतुर नार बड़ी होशियार'- सुनील दत्त सिर्फ अपने ओठों को हरकत दे रहे हैं, पर उनके पीछे खड़े हैं किशोर दा, आवाज उनकी है। अब इसी दृश्य को यूँ अपने सामने रख लीजिए- क्रिश्चियन कॉलेज का ब्रांसन हॉल, मंच पर डीआर जोशी (किशोर के मित्र) दे रहे हैं गीत की प्रस्तुति और नैपथ्य अर्थात पर्दे के पीछे आवाज किशोरकुमार की। तो क्या 'पड़ोसन' में किशोर दा के कॉलेज के दिनों की यादें ताजा नहीं होतीं। वे थे बड़े ही शर्मीले। कह दिया करते थे- अगर पर्दा उठाया तो मैं गायब। मजबूरन किया वही जाता था जो किशोर चाहते थे।
होस्टल के उनके कमरे पर तबला, ढोलक, हारमोनियम तो नजर आते थे, किताबें नहीं। क्लास में पिछली बैंच पर बैठने वाले किशोर की उँगलियाँ सदैव डेस्क पर थिरकती रहती थीं। अध्यापकों को उनकी ये हरकत ठीक नहीं लगती थी। प्रो. जयदेवप्रसाद दुबे ने एक बार टोका भी-'बेटा इस वादन से काम नहीं चलने वाला, पढ़ाई जरूरी है।' उनका जवाब था- 'सर मैं इसी से (अर्थात गायन-वादन) अपना गुजारा कर लूँगा।'
कॉलेज में थी एक केंटीन और उस केंटीन के संचालक कहलाते थे विद्यार्थियों के बीच 'काका', उधार देते भी थे, चिढ़ते भी थे और उधार जो वसूल नहीं हो पाता था अपने रजिस्टर (बही) में टीप लेते थे। विद्यार्थी ही उनका वृहद परिवार था। किशोरकुमार गांगुली पर भी 'काका' की बही में दर्ज थे 'पाँच रुपए बारह आने' और पार्श्वगायक किशोर की स्मृति में भी कदाचित यह रकम कहीं दर्ज रही, तभी तो 'चलती का नाम गाड़ी' के एक गीत में वे गुनगुना उठते हैं- 'दे-दे मेरा पाँच रुपैया बारह आना, मारेगा भैया, ना ना ना ना'। इसी तरह 'मैं हूँ झुम-झुम-झुम-झुम झुमरू' का मुखड़ा किशोर दा को मय धुन के गुनगुनाते सुना है उस दौर के छात्रों ने इमली के झाड़ के नीचे।
जब देश हुआ आजाद उन दिनों संचार साधनों की अधिकता नहीं थी, फिर भी क्रिश्चियन कॉलेज के छात्रों के बीच यह खबर फैल चुकी थी कि भारत स्वाधीन होने वाला है, अँगरेज भारत छोड़कर जाने वाले हैं। भनक पड़ते ही छात्र अहसान अली खान (खरगोन) के नेतृत्व में एक कमेटी गठित हुई- 'भारत का तिरंगा ध्वज' बना, छात्रों में उसे वितरित किया गया और 400 रुपए की सहयोग राशि एकत्र की गई। तीन दिनों तक अनवरत कॉलेज में स्वाधीनता उत्सव मनाया गया। किशोरकुमार की मंडली ने नाटक, स्वाधीनता व देशभक्ति के गीतों का ऐसा समाँ बाँधा कि समय कैसे गुजरता गया, पता ही नहीं चला।
जब मोजेस सर ने बचाय ा पानी से एलर्जी थी या डरते थे वे कि जब कॉलेज के विद्यार्थियों की एक पिकनिक पातालपानी गई तो वे पानी व कुंड दोनों से दूर-दूर ही रहे। पर विद्यार्थियों का हुजूम और मजाक कि तैरना न जानने वाले किशोर जा गिरे पानी में, थोड़ी घबराहट-सी मच गई, जैसी अमूमन मचा करती है ऐसे अवसर पर। एक एथलीट प्राध्यापक डॉ. रुनेन मोजेस चूँकि साथ में थे, उन्होंने 'उन्हें' (किशोर को) पानी से बाहर निकाल लिया।
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अमितकुमार ने देख ा वजह बना था लता अलंकरण समारोह और अमितकुमार (स्व. किशोर दा के पुत्र) अपनी पत्नी के साथ इंदौर आए थे। इसी दरम्यान उन्हें दिलीप कवठेकर से जब यह जानकारी मिली कि निकट ही है उनके पिता की शैक्षणिक कर्मभूमि 'इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज' तो वे (अमित) वहाँ जाने का लोभ सँवरण न कर सके। उन्हें जाना था जन्मभूमि खंडवा, पर उन्होंने इसके पूर्व कर्मभूमि कॉलेज पर पड़ाव डाल दिया अपना। क्रिश्चियन कॉलेज आकर उन्होंने न केवल अपना काफी वक्त यहाँ गुजारा, बल्कि उन समस्त यादों से भी रूबरू हुए जो अमित के पिता किशोर से जुड़ी हुई थीं। इमली के ऐतिहासिक दरख्त से गुजरकर अमित होस्टल के उस कमरे तक भी गए, जहाँ किशोर दा मित्रमंडली के साथ, जैसी भी उस वक्त होती थी, संगीत साधना किया करते थे। ब्रांसन हॉल, उसके मंच तथा मंच पर रखे हुए 'डायस' को देखा, जहाँ किशोर दा पर्दे केपीछे से अपनी प्रस्तुतियाँ दिया करते थे। मौजूद चीजों को छू-छूकर मानो अमित ने अपने पिता की स्मृतियों को जिया। कॉलेज में रखे हुए किशोर दा के एडमिशन फार्म, उनकी लिखावट, उनके विद्यालयीन प्रमाण पत्र तथा सबसे बढ़कर अपने दादाजी के लिखे हुए पत्र को उन्होंने पढ़ा व अपनी दिली खुशी जाहिर की।