हॉलीवुड में 'टोबा टेकसिंह'

अनहद
IFM
भारत और पाकिस्तान का विभाजन इतना बड़ा विषय है कि इस पर बहुत-सी फिल्में बन सकती हैं। पृथ्वी के ज्ञात इतिहास में इतना बड़ा विस्थापन और दंगा कभी कहीं नहीं हुआ। लाखों लोग इधर से उधर और उधर से इधर हुए। अपना घर, अपनी जमीन, अपना सबकुछ छोड़कर एक ऐसे देश में जाना, जहाँ कोई आपका नहीं, जहाँ आपको यह नहीं पता कि किसके घर जाएँगे, कहाँ रुकेंगे, क्या करेंगे। विस्थापन भी ऐसा कि रातोंरात गाँव के गाँव खाली हुए। माँ को नहीं पता कि बेटा कहाँ है, पति कहाँ है। सारा परिवार दरहम-बरहम हो गया।

यहाँ से जो मुसलमान पाकिस्तान गए, उनके पास सुनाने के लिए यहाँ के दंगे थे कि किस तरह उनका घर लूट लिया गया, किस तरह बहन-बेटियों से बलात्कार हुए। उधर से इधर आने वाले हिन्दुओं के पास भी इसी तरह की दास्तानें थीं। लोग जैसे एकसाथ पागल हो गए थे। दुनिया का सबसे बड़ा दंगा, इतिहास के सबसे बड़े और श्रृंखलाबद्ध सामूहिक और एकल बलात्कार...।

उर्दू के लेखकों ने इस पागलपन के खिलाफ बहुत कुछ लिखा है। अहमद नदीम कासमी, कृष्ण चंदर और सआदत हसन मंटो का नाम खून और चीखों की दास्तान रकम करने में सबसे आगे है। मंटो की लिखी एक कहानी है "टोबा टेकसिंह"। पागलखाने में टोबा टेकसिंह नामक गाँव का एक पागल भर्ती है। इस पागल का असली नाम है बिशनसिंह। इस पागल सहित अन्य कई पागलों को फिक्र है कि विभाजन के बाद हमारे इलाके का क्या होगा। वह पाकिस्तान में जाएगा या हिन्दुस्तान में। आखिर में बिशनसिंह की लाश सीमा रेखा पर पाई जाती है। उस जगह जो न हिन्दुस्तान की है, न पाकिस्तान की। विभाजन पर मंटो ने जो तीखे तंज किए हैं उनमें कई इस कहानी में हैं। हमारे फिल्मकार रोना रोते रहते हैं कि अच्छी कहानियों का अभाव है। जाहिर है पढ़ने-लिखने में उनकी रुचि नहीं है। उन्हें हिन्दी-उर्दू के महान लेखकों का ही पता नहीं है वरना मंटो की कहानी "टोबा टेकसिंह" पर फिल्म हॉलीवुड वाले नहीं, मुंबई वाले ही बना लेते।

खबर आई है कि आमिर खान इस फिल्म में काम करेंगे और जाहिर है वे पागल बिशनसिंह की भूमिका निभाएँगे। "टाइटैनिक" की हीरोइन कैट विंसलेट भी इसमें होंगी और निर्देशन करेंगे भारतीय मूल के पैन नलिन। भारतीय फिल्मकारों ने बहुत निकट के इस इतिहास से आँख फेर-सी रखी है। शायद कोई जान-बूझकर इधर देखना नहीं चाहता। मंटो के बीसियों अफसाने ऐसे हैं, जिन पर बढ़िया फिल्म बन सकती है। अगर विभाजन की त्रासदी की बात है तो कृष्ण चंदर का उपन्यास "गद्दार" भी बढ़िया है।

यह मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है कि हम विभाजन की त्रासदी को याद क्यों नहीं करते? हम ऐसा जाहिर करते हैं कि १५ अगस्त १९४७ में अँगरेज चले गए और बस, देश आजाद हो गया। हम १४ अगस्त की भी बात नहीं करते, जब देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान अस्तित्व में आया। इतिहास की पढ़ाई में देश की आजादी वाला पाठ जब पढ़ाया जाता है तो दंगों का जिक्र नहीं होता। आमिर खान की "टोबा टेकसिंह" से शायद शुरुआत हो। अमृता प्रीतम की एक कहानी पर जरूर फिल्म बनी है, पर वह व्यक्ति आधारित है।

( नईदुनिया)

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