Cannes Film Festival: अब तक का सबसे लंबे स्टैंडिंग ओवेशन का रिकॉर्ड फिल्म 'पैन'स लैबिरिंथ' के नाम

प्रज्ञा मिश्रा
सोमवार, 29 मई 2023 (12:30 IST)
Photo credit : Twitter
Cannes Film Festival : नंदिता दास ने कहा कि कान फिल्म फेस्टिवल में रेड कारपेट के कपड़ों के अलावा फिल्में भी होती हैं। और भारत के इंटरनेट उपभोक्ता इस बात पर इतने ज्यादा खुश हो गए कि इसे वायरल ही कर दिया। लेकिन इन लोगों को कौन समझाए कि कान फिल्म फेस्टिवल न तो सिर्फ रेड कारपेट के कपड़े हैं, न सिर्फ फिल्में हैं बल्कि यह फेस्टिवल हमारे आस पास की दुनिया की ही तरह बहुत सारी चीज़ों का बातों का मिश्रण है।
 
यहां पाम डी'ओर अवार्ड पाने की ख्वाहिश में दुनिया भर के 21 डायरेक्टर्स मौजूद हैं, लेकिन यह फिल्में जितनी ख़ास हैं उतना ही वो लाल कालीन जो क्रोसेट से लेकर थिएटर लुमियर तक बिछा होता है, अगर इस फिल्म फेस्टिवल में फिल्मी दुनिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर बात होती है तो इसी लाल कालीन से सजी सीढ़ियों पर दुनिया भर की महिलाओं के हक में पोस्टर और बैनर लेकर कलाकार खड़े होते हैं, इस दुनिया में जो इंसानियत पर अत्याचार हो रहे हैं उनके विरोध में प्रदर्शन होते हैं।
 
पिछले 76 सालों से अगर यह फेस्टिवल अपनी साख और अपना नाम बनाए हुए है तो उसकी बहुत बड़ी वजह है उनका धरती के हर कोने में बनने वाली बेहतरीन फिल्मों के लिए समर्पण। फिल्में हमेशा से ऐसे किसी भी फेस्टिवल का मूल आधार हैं,  लेकिन हर कला को बरक़रार रहने के लिए, आगे बढ़ने के लिए पैसे की ज़रुरत है और यही काम फेस्टिवल में भी होता है। ऐश्वर्या राय से लेकर सारा अली खान तक सभी किसी न किसी कंपनी की ब्रांड एम्बेसडर के रूप में रेड कारपेट पर डिज़ाइनर गाउन या कपड़ों में रैंप वाक करती नज़र आती हैं।
 
यह भी स्पॉन्सर्ड वाक होती हैं और हर चीज़ में पैसे यानी धन का लेन देन होता ही है। इतना ही नहीं इस रेड कारपेट पर वाक करने के टिकट भी लिए जा सकते हैं और इनकी कीमत पच्चीस हजार डॉलर तक हो सकती है। जब पैसों की बात चली है तो फेस्टिवल के साथ चलने वाले मार्केट उर्फ मार्शे की बात भी करते ही चलें, जहां फिल्मों की खरीदी बिक्री, आने वाले प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग जमा करना सारे काम होते हैं। 
 
अब अगर कोई फिल्म है जो बन चुकी है और बिक्री के लिए तैयार है तो लोगों को कैसे दिखाई जाए, इसके लिए मार्केट स्क्रीनिंग होती हैं। यह सिनेमा घर बीस पच्चीस सीटों से लेकर सौ सीट तक हो सकते हैं। अब अगर इसकी तुलना थिएटर लुमियर से करें जहां ढाई हजार से ज्यादा लोग एक साथ बैठ कर फिल्म देखते हैं तो अंदाजा होगा कि इन स्क्रीनिंग का साइज कितना छोटा हो सकता है।
 
तो जिस फिल्म की मार्केट में स्क्रीनिंग हुई क्या उसे कान फिल्म फेस्टिवल में शामिल माना जाना चाहिए? आम तौर पर यह देखने सुनने में आता है कि फलां फिल्म की स्क्रीनिंग कान फिल्म फेस्टिवल में हुई जैसे पिछले साल माधवन की फिल्म 'रॉकेट्री' सही मायनों में इन फिल्मों के पब्लिसिटी करने वालों को यही कहना चाहिए कि इन फिल्मों को कान फेस्टिवल के मार्केट में दिखाया गया, लेकिन ऐसा होता नहीं है। क्या लंदन में रहने वाले सभी बकिंघम पैलेस में रहते हैं? क्या हर इंदौरी राजबाड़े का पता अपने पते में लिख सकता है? अगर नहीं तो इन फिल्मों को अपनी गली और सड़क नंबर भी सही ढंग से देने की ज़रुरत है।
 
यह लगभग हर साल का झगड़ा है कि हमारी शॉर्ट फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल में गई, हमारी फिल्म का पोस्टर कान फेस्टिवल में रिलीज हुआ। न तो फेस्टिवल कोई पोस्टर रिलीज करने का कार्यक्रम करता है और न ही उसकी जिम्मेदारी है कि इन दस दिनों में इस शहर में होने वाली हर घटना उससे जुडी हुई है। इस साल भारत के लिए, भारत की फिल्मों के लिए बहुत बड़ी खबर थी कि अनुराग कश्यप की फिल्म कैनेडी मिडनाइट स्क्रीनिंग के लिए चुनी गयी। 
 
लेकिन भारत की सरकार की तरफ से लगे इंडिया पैवेलियन में इस फिल्म का कोई चर्चा तक नहीं था, हां पैवेलियन के अंदर मोदी जी की तस्वीर ज़रूर लगी थी (दुनिया भर के देशों के पेवेलियन में यह इकलौता पैवेलियन था जहां वहां के स्टेट प्रमुख की, किसी नेता की तस्वीर थी बजाय किसी कलाकार के, बजाय किसी फिल्म के पोस्टर के) सुनने में आया कि लगभग पचास साठ लोग भारत से आए थे इस भीड़ में अनिल कुंबले भी शामिल थे और ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली गुनीत मोंगा भी। लेकिन चौबीस तारीख को भारत से आई इस सरकारी बारात का एक भी बाराती मौजूद नहीं था। 
 
आधी रात को जब अनुराग कश्यप अपनी टीम के साथ रेड कारपेट पर पहुंचे तो उनके स्वागत में हजारों लोग तालियां बजा रहे थे। रात तीन बजे फिल्म खत्म होने पर लगभग सात मिनिट तक तालियां बजती रहीं। सवाल उठता है कि इन तालियों के बजने को वक़्त को इतनी सही ढंग से कैसे नापा जाता है? तो जवाब है कि जैसे ही फिल्म खत्म होती है तुरंत कैमरा फिल्म की टीम को स्क्रीन पर दिखाना शुरू करता है। अब ज़ाहिर सी बात है इतने बड़े हॉल में अगर हजारों लोग तालियां बजायेंगे तो टीम खुश भी होगी और भावुक भी। 
 
बस इन चेहरों और इन लोगों की खुशी बांटने में तालियां बढ़ती ही जाती हैं। आम तौर पर अगर पांच मिनिट तक ताली बजती रहे तो उसे बहुत बड़ा अवॉर्ड माना जा सकता है लेकिन कान फिल्म फेस्टिवल में पांच मिनिट तो ऊंट के मुंह में जीरा जैसे लगते हैं। अभी तक का सबसे लंबे स्टैंडिंग ओवेशन (खड़े होकर तालियां बजाना) का रिकॉर्ड बाईस मिनिट का है जो मेक्सिकन डायरेक्टर गिलर्मो डेल टोरो की फिल्म 'पैन'स लैबिरिंथ' के नाम है। इस साल मार्टिन स्कॉर्सेसे की फिल्म 'किलर ऑफ़ द फ्लावर मून' को लगभग 10 मिनिट का स्टैंडिंग ओवेशन मिला।
 
लेकिन यहां यह याद रखने की जरुरत है कि कितनी देर तक तालियां बजी यह फिल्म कैसी है उसका जवाब है। और फिर  बात घूम फिर कर वहीँ आ जाती है कि फेस्टिवल की नींव दुनिया का बेहतरीन सिनेमा है और कौन सी फिल्म कैसी है यह न तो उसका रेड कारपेट तय करता है न ही उसे मिलने वाली तालियां, यह फिल्म देखकर ही बताया जा सकता है। अब यह पढ़ने वालों पर निर्भर करता है कि उन्हें रेड कारपेट के कपड़े देखना हैं या फिल्म कैसी है यह जानना है। और जिस तरह की खबर चाहिए उसे कहां से पाना है यह भी पढ़ने वालों को ही ढूंढना है। क्योंकि फेस्टिवल आयोजित करने वाले और उसमें हर साल तीर्थ यात्रा की तरह शामिल होने वाले अपना काम करते रहते हैं।
 

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