कभी वड़ा पाव और चाय पीकर भी ओम पुरी ने गुजारे थे दिन...

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18 अक्टूबर 1948 को अंबाला में जन्में ओम पुरी को आज भले ही फिल्मी दुनिया एक सफल कलाकार के रूप में देखती हो लेकिन उन्होंने यह मुकाम कैसे हासिल किया, यह बड़ी दिलचस्प दास्तान है, जिसे उन्होंने जिंदगी में पहली मर्तबा पूरी दुनिया के सामने रेडियो के जरिये जाहिर किया था। 
 
'विविध भारती' पर 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम के तहत यूनुस खान ने उनसे विशेष बातचीत की, तब पता चला कि इस इंसान ने अपनी जिंदगी में कितने बुरे दिनों का सामना किया है। ओम पुरी की जिंदगी की दास्तान पढ़िये, खुद उनकी जुबानी...

 
मेरा जन्म भले ही अंबाला में हुआ लेकिन मेरी शिक्षा मामा के घर पटियाला में हुई। मैं बहुत छोटा था, तभी से मामा के पास पला और बड़ा हुआ। मेरी शिक्षा हिंदी और पंजाबी में हुई। मैं पढ़ाई में हमेशा अव्वल आता रहा और क्लास का मॉनिटर भी बना रहा। 11 वीं कक्षा के आते-आते नाटकों में काम करने का शौक पड़ गया था। 
 
पटियाला से मैं दिल्ली चला आया और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा  (एनएसडी) में एडमिशन ले लिया लेकिन फीस भरने के पैसे नहीं थे। दिल्ली में रहने की समस्या आई तो मैं पंजाब हाऊस पहुंचा, इस उम्मीद में कि कहीं रहने का ठिकाना मिल जाएगा लेकिन वहां पर एक बंगाली व्यक्ति था, जिसने मुझे टका सा जवाब दे दिया 'दिल्ली में रहने का इंतजाम नहीं हो सकता।' मैं बहुत मायूस होकर वापस दरवाजे से बाहर आ रहा था कि उन्होंने आवाज दी। मैं लौटा और उन्होंने का कि मैं दो कमरे के मकान में अकेला रहता हूं लिहाजा तुम मेरे साथ कुछ दिनों तक रह सकते हो। संयोग था कि उनका घर एनएसडी के पास ही था। 
 
तब एनएसडी में मेरे साथ नसीरुद्दीन शाह भी पढ़ते थे और उनसे दोस्ती हो गई,वह भी बहुत गहरी। मैं बहुत मध्यमवर्गीय परिवार से था और मेरे पास फीस भरने के पैसे भी नहीं थे। मैंने एनएसडी वालों से कह दिया ‍कि मैंने पंजाब सरकार से स्कॉलरशिप के लिए आवेदन दिया है, वहां से पैसे आते ही मैं फीस भर दूंगा। 3600 रुपए की स्कॉलशिप आई पूरे दो साल बाद और इस तरह मेरी फीस जमा हुई। 
 
एनएसडी में स्टेज शो करते थे, जो काफी पसंद किए जाते थे। एनएसडी से निकलने के बाद सोचा क्या किया जाए? कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि पुणे में फिल्म इंस्टिटियूट में दाखिला लिया जाए। जब पुणे में मेरा इंटव्यू था, तब मेरे पास एक अच्छी सी शर्ट तक नहीं थी। तब मुझे नसीरुद्दीन शाह ने एक चैक्स वाली शर्ट गिफ्ट की और मैं पुणे पहुंच गया। वहां मेरा दाखिला भी हो गया। बाद में नसीर भी पुणे आ गए। उस वक्त मेरे क्लासमेट थे सुरेश ओबेराय, राकेश बेदी, नसीरुद्दीन शाह आदि।
 
फिल्म इंस्टिटियूट की क्लास में मेरा दम घुटता था क्योंकि वहां अंग्रेजी ज्यादा बोली जाती थी, जबकि मेरी पढ़ाई हिंदी और पंजाबी में हुई थी। एक प्रोफेसर ने सीनियर से कहा कि वह यह जाने कि ओम पुरी का मन क्यों नहीं लगता? तब मैंने साफ बता दिया कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। फिर मुझे सलाह दी कि मैं रेडियो पर अंग्रेजी समाचार सुना करूं और अंग्रेजी अखबारों को पढूं। इसके बाद मैंने यही किया और धीरे धीरे मेरी अंग्रेजी अच्छी होती चली गई। आप आश्चर्य करेंगे कि बाद में मैंने ढेर सारी अंग्रेजी फिल्मों में काम किया। 
 
एक और बात याद आई...पुणे में भी खाने की दिक्कत होती थी क्योंकि पास में पैसे तो होते नहीं थे। तब मेरे पास रेजगारी होती थी और मैं वड़ा पाव खाकर और चाय पीकर दिन गुजारता रहा। नसीर मुझसे पहले मुंबई पहुंच गए थे और 1976 में मैंने मुंबई का रुख किया। 
 
नसीर पेइंगगेस्ट के रुप में कहीं रहते थे और मैंने वहां 15-20 गुजारे। फिर मकान मालिक ने मुझसे कहीं और ठिकाना ढूंढ़ने को कहा। फिर मैं एक एजेंट के माध्यम से वर्ली में डिसूजा हाऊस पहुंच गया, जहां का किराया 175 रुपए प्रति माह था। दो महीने का 350 रुपए एडवांस दिया लेकिन एजेंट को कह दिया कि तुम्हें देने को जेब में पैसे नहीं बचे। एजेंट ने कहा कि बाद में दे देना...
 
जब मैंने मुंबई में अपना कदम रखा था, तब चिकने चेहरे वाले कलाकार ही फिल्मी दुनिया में छाए हुए थे। मैंने तय कर लिया कि मुझे श्याम बैनेगल, गोविंद निलहानी, बासू चटर्जी, ऋषिकेष मुखर्जी जैसे फिल्म निर्माताओं की तलाश थी। यह सच है कि मैं दूसरे कलाकारों की तरह अपनी फोटो फाइल लेकर उनके घर कभी नहीं गया। मुंबई में हमारा एक थिएटर ग्रुप था जिसका नाम था 'जलवा'। इस ग्रुप में रोहिणी हट्‍टंगढ़ी जैसी आर्टिस्ट थीं। 
 
एक स्टेज शो को गोविंद निलहानी ने देखा था और उन्होंने मुझे और नसीर को एक डॉक्यूमेंट्री कम एड फिल्म में मौका दिया। नसीरुद्दीन शाह और मैं मजदूर बने थे बदले में हमें 600 रुपए का मेहनताना मिला। जिस दिन पैसे मिले मैंने और नसीर ने जिंदगी में पहली बार एक एयरकंडीशंड होटल में जाकर अच्छा खाना खाया वरना हम दोनों एक सरदार जी के ढाबे पर ही सस्ता खाना खाया करते थे।
 
जब मेरी पहली फिल्म 'अर्द्धसत्य'ने रजत पटल पर धूम मचाई तो बॉलीवुड ने जाना कि मैं भी कलाकार हूं। जहां तक मेरी संवाद अदायगी की बात है तो यह कला मुझे एनएसडी में सिखाई गई थी। तब मुझे लगता था कि हमें तो एक्टिंग करना है फिर संवाद अदायगी की क्लास क्यों लेकिन अब लगता है कि इसका फायदा हमें आगे चलकर मिला। 
 
मुझे जिंदगी में बहुत अच्छे लोग मिले। मेरा मानना है कि रुपए की चोरी 'चोरी'मानी जाए लेकिन खाने पीने की चीजों को 'चोरी' में शामिल नहीं किया जाए। स्कूली दिनों में हमने जाम, बेर की खूब चोरियां की। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे हमेशा अच्छे लोगों का साथ मिला और मैं जिंदगी में आगे बढ़ता चला गया...।
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