काम से ही रोशन होता है नाम

अनहद
IFM
यूँ तो सभी सितारे यही कहते हैं कि वे ऐरे-गैरे रोल कबूल नहीं करते। सभी सितारे कहते हैं कि मैं पहले स्क्रिप्ट पढ़ता हूँ/ पढ़ती हूँ और रोल पसंद आने के बाद ही फिल्म साइन करता हूँ/ करती हूँ। मगर फिल्म देखने जाइए तो रोल वही का वही और फिल्म भी एकदम घिसी-पिटी। आप भी सोचेंगे कि ये लोग जब स्क्रिप्ट पढ़कर ऐसी फिल्में साइन करते हैं, तो बिना पढ़े कैसी फिल्मों में काम करते। दरअसल, इंटरव्यू में सारे सितारे झूठ बोलते हैं। रटी-रटाई बातें बोलते हैं। अव्वल तो कोई स्क्रिप्ट पढ़ता ही नहीं। सभी लोग बैनर देखते हैं। कुछ तो बैनर भी नहीं, केवल साइनिंग अमाउंट देखते हैं।

स्क्रिप्ट पढ़कर फिल्में साइन करना कैसा होता है, इसके एक उदाहरण अभय देओल हैं जिनकी फिल्म "देव डी" को टाइम्स ऑफ इंडिया के समीक्षकों ने पाँच सितारों की रैंकिंग दी है। अभय देओल ने अभी तक जितनी भी फिल्मों में काम किया है, सबमें कुछ ताजगी थी। "देव डी" से पहले आई उनकी फिल्म "ओय लकी लकी ओय" फिल्म सफल थी। इस मायने में कि दर्शकों ने भरपूर मजा लिया।

" सोचा न था" उनकी पहली फिल्म थी। "एक चालीस की लास्ट लोकल" भी अलग ढंग की फिल्म थी और इस तरह की फिल्म पसंद करने वालों ने फिल्म को पसंद भी किया। उनकी अन्य फिल्में भी स्क्रिप्ट के मामले में ढर्रावादी फिल्मों से हटकर रही हैं। उन्होंने नए और प्रतिभाशाली निर्देशकों के साथ काम किया है और खुद उन्हें भी फिल्म की गहरी समझ है। देवदास को नए अंदाज में बनाने का आइडिया उनका ही था।

जो लोग नए अंदाज की फिल्में पसंद करते हैं, उनके लिए अभय देओल एक ब्रांड बन गए हैं। अभय देओल का नाम अच्छे और नए तरह के सिनेमा की गारंटी बन गया है। सितारा-पुत्रों समेत ज्यादातर कलाकार अंधाधुँध फिल्में साइन करते हैं, बड़े बैनर के पीछे दौड़ते हैं, बड़े बजट की फिल्म पाने के लिए बेताब रहते हैं। ऐसे में अभय देओल अपनी ब्रांडिंग बड़ी ही मजबूती से कर रहे हैं। वे बड़े बैनर के पीछे नहीं भाग रहे, अच्छे काम और अच्छी स्क्रिप्ट के पीछे लगे हुए हैं। बड़े नाम से बेहतर है बड़ा काम। बड़े काम से ही बड़ा नाम बनता है।

अभिनय क्षमता उनमें सनी-बॉबी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। वे जिस तरह की फिल्मों में काम करते हैं, उसमें मजा भी लेते हैं। अपने काम का मजा लेना अलग तरह की कामयाबी है। वे नंबर की दौड़ में आएँ न आएँ, पर अपना मुकाम जरूर बना लेंगे। यह भी छोटी बात नहीं कि आपको अपनी मर्जी का काम करने की आजादी मिले, सो भी फिल्म इंडस्ट्री के इस भेड़िया-धसान में।

( नईदुनिया)


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