रिस्क... कुछ नया रचने की

अनहद
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फर्ज कीजिए कि फिल्म "न्यूयॉर्क" में कैटरीना कैफ, जॉन अब्राहम और नील नितिन मुकेश नहीं होते, तो क्या फिल्म देखने के लिए इतने सारे लोग जाते? अगर फिल्म का निर्माण यश चोपड़ा ने नहीं किया होता और निर्देशक कबीर खान की बजाय कोई नया आदमी होता, तो क्या लोग इस फिल्म को देखने जाते?

कुछ लोग कहेंगे कि ज़रूर जाते, वे "भेजा फ्राय" और "खोसला का घोसला" जैसे नाम गिना सकते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि ये हास्य फिल्में हैं और "न्यूयॉर्क" एक हास्य फिल्म नहीं है, उसका विषय तो खासा गंभीर है। कुछ नाम ऐसे भी गिनाए जा सकते हैं, जिसमें विषय गंभीर था, पर फिल्म में सितारे नहीं थे। पाकिस्तानी फिल्म "खुदा के लिए" भी न्यूयॉर्क वाले विषय पर है, मगर उसे उतने लोगों ने नहीं देखा जितने लोगों ने "न्यूयॉर्क" देखी। कारण यह कि इसमें सितारे नहीं थे। "खुदा के लिए" उन गिनती के लोगों ने देखी, जो फिल्म न भी देखते तो फर्क नहीं पड़ता। वे पहले से ही समझदार थे।

" तारे ज़मीन पर" में जो बात कही गई है, वो बात अगर आमिर खान के अलावा कोई और कहता तो क्या फर्क नहीं पड़ता? अगर फिल्म में आमिर की बजाय कोई और होता तो क्या लोग फिर भी फिल्म देखने जाते? "रामचंद्र पाकिस्तानी" कितने लोगों ने देखी? बहुत कम लोगों ने। सितारों की अपनी ताकत है। इन सितारों के साथ यदि कोई अछूते विषय पर फिल्म बनाए तो ज्यादा भला होता है।

एक तो यह कि फिल्म में दिया गया संदेश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जाता है। दूसरा यह कि अच्छे विषयों पर फिल्म बनाए जाने का चलन चल पड़ता है। "न्यूयॉर्क" में जो संदेश है, वही संदेश फिल्म "मुंबई मेरी जान" में भी था और बहुत ताकतवर ढंग से था। "न्यूयॉर्क" में जो बातें इरफान खान ने कही हैं, वही मुंबई मेरी जान में परेश रावल कहते हैं। परेश रावल का अभिनय ज्यादा प्रभावी है, पर फिल्म में बड़े सितारे नहीं थे, इसलिए बात ज्यादा लोगों तक नहीं पहुँची।

एक तरफ फिल्म वाले कहते हैं कि हमारे पास अच्छी कहानियाँ नहीं होतीं। दूसरी तरफ विषय बिखरे हुए हैं। भारतीय सिनेमा का दर्शक अब परिपक्व हुआ है। पेड़ों के आसपास नाच-गाना और कॉलेज का रोमांस देख-देखकर वो ऊब रहा है। विज्ञान फिल्में बनाना हमारे बस में नहीं है। हम विज्ञान फिल्म भी बनाएँ, तो उसका महूरत कोई वाजिबी-सा पढ़ा-लिखा ज्योतिषी निकाले और पूजा-पाठ के बाद ही शूटिंग शुरू हो। विज्ञान से तो हमारा नाता है ही नहीं। कम से कम हम दुनिया के वर्तमान पर तो फिल्में बना ही सकते हैं।

मुख्य धारा के निर्माताओं को यह अब समझ आ रहा है कि फिल्में तो यूँ भी नाकाम हो रही हैं, तो क्यों न रिस्क उठाकर नया कुछ रचा जाए। यश चोपड़ा जैसा निर्माता अगर ऐसी फिल्में बना सकता है, तो दूसरे क्यों नहीं?

( नईदुनिया)


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