कलाकार की सादगी और निश्छलता क्या होती है ये रेशमा से मिलकर ही समझ में आया। मैंने पूछा कि आपका कोई ब्रोशर या टाइप किया हुआ बायोडाटा हो तो रेशमाजी ने बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से कहा बंजारों का क्या बायोडाटा? लिख लो बीकानेर (राजस्थान) की सरज़मीन की पैदाइश हूँ और अब दरवेशों के आस्तानों से मिली चीज़ों को सुनाती फिरती हूँ।
मैंने हीरो फ़िल्म के गीत लम्बी जुदाई का ज़िक्र किया तो कहने लगी कि ये नग़मा तो हिन्दुस्तान में मेरी मुँह दिखाई है। मैं क्या गाती हूँ वो तो अब सुनना। इसके बाद रेशमा बुल्लेशाह, बाबा फ़रीद की रचनाओं को गाती रहीं।
रेशमा के गाने में एक जुदा अंदाज़ था। उनके कंठ का खरज वह रियाज़ और उस्तादों का तराशा हुआ नहीं था, वह कहीं रेगिस्तानों की उस बालू की तरह था जिसमें ऊपरी तपिश और भीतरी ठंडक होती है। वह स्वर क़ायनात की उस ख़ला की उपज था जो ख़ामोशी को और अधिक विस्तार देता था। हाँ, कुछ बंदिशों में उसमें पंजाब की मस्ती भी शुमार हो जाती थी और पान की ललाई में भीगे होंठों के बीच से उनके दाँतों से वह झरती हुई कुछ और अधिक मादक हो जाया करती थी। पूरे कंसर्ट में मैंने उनके सामने कोई डायरी या काग़ज़ नहीं देखा। हर चीज़ उन्हें मुँहज़ुबानी याद थी।
मेरी ज़िन्दगी का सबसे रोशन लम्हा तब आया जब हमने उनके लाइव शो के दूसरे दिन एक गुफ़्तगू के लिए आमंत्रित किया। यह युवाओं का एक संगठन था। उन्होंने साफ़ कह दिया था बात करूंगी, गाऊँगी नहीं। बातचीत शुरू हुई। जब मुझे लगा कि मैं सारे सवाल कर चुका तो अब कुछ गाने का इसरार कर ही लूँ। मैंने कहा रेशमा आपा कोई मुसव्विर आए और उसके हाथ से एक तस्वीर बनते न देखी जाए तो कैसे मालूम पड़ेगा कि उसका फ़न क्या है और वह किस पाये का आर्टिस्ट है? मैंने कहा कि आपको सुने बिना भी सुरों की मिठास क्या होती है कैसे पता पड़ेगा?
राजस्थानी में उन्होंने मुझे कहा म्हें थाँकों इसारो समझ गी हूँ (मैं तुम्हारा इशारा समझ गई हूँ)। रेशमाजी ने गाने से बचने के लिए बड़े प्यार से कहा कि गाने के लिए तो साज़ होने चाहिये न। मैंने कहा कि आपकी आवाज़ को साज़ कहाँ दरकार? आप तो बंजारन हैं, रेगिस्तान में सफ़र करते हुए कहाँ साज़ होते हैं। तो तत्काल जुमला आया कि भई ताल तो चाहिए न और जिस रोशन लम्हें का ज़िक्र मैंने ऊपर किया वह समझिए आ गया। जिस टेबल के सामने मैं और रेशमा जी बैठे हुए थे उसे दिखा कर कहा इससे ताल का काम हो जाएगा।
रेशमाजी ने कहा बजाएगा कौन? मैंने कहा मैं बजाऊँगा और रेशमा जी शुरू हो गईं। ब्याह पर गाए जाने वाले एक पंजाबी गीत से शुरू किया और तक़रीबन दो घंटे तक उन्होंने गीतों की झड़ी लगा दी और सिर्फ़ टेबल पर मेरी संगत के सहारे बिना, किसी साज़ का आसरा लिए हुए रेशमा का वह करिश्माई स्वर गूँज रहा था।
हम सुनने वालों को लग रहा था कि हम ऊँट गाड़ी में बैठे एक ऐसी सुरीली यात्रा के हमराह हो लिए हैं जो ज़िन्दगी में शायद कभी न मिले। रेशमा चली गई हैं, लेकिन ये आवाज़ें कुदरत की कारीगरी का नमूना हुआ करती हैं। जब कभी मौसीक़ी के हवाले से ऐसी आवाज़ों का इंतेख़्वाब होगा जिसका दरदरापन रूह की शुध्दि का सबब बन सकता है तो बिला शक हमें रेशमा के साये में जाना पड़ेगा।
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तस्वीर उसी मौक़े की है जिसमें रेशमाजी के साथ ख़ाक़सार टेबल पर साज-संगत कर रहा है)