संजीव कुमार : जन्‍मदिवस पर विशेष

समय जिन्हें मिटा न सका

Webdunia
- संदीप पाण्‍डे य

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हिन्दी सिने जगत के सर्वाधिक सक्षम अभिनेताओं में से एक थे संजीव कुमार। एक प्रतिभाशाली अभिनेता, जिसने हिन्दी सिनेमा के नायक की पारंपरिक छवि को ध्वस्त कर दिया और उसे अपने ढंग से परिभाषित किया ।

9 जुलाई, 1930 को सूरत के एक गुजराती परिवार में जन्मे संजीव कुमार का वास्तविक नाम था हरिहर जरीवाला। उन्होंने अपने लगभग 25 वर्ष (1960-85) लंबे फिल्मी कॅरियर में 150 से भी अधिक फिल्मों में अभिनय किया। सन् 1971 में ‘दस्त क’ और 1973 में ‘कोशि श’ फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। इसके अलावा उन्हें तीन फिल्म फेयर पुरस्‍कारों से भी नवाजा गया, जिसमें ‘शिख र ’ (1968) के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का तथा ‘आँध ी ’ (1975) और ‘अर्जुन-पंडि त ’ (1976) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का सम्मान शामिल है।

संजीव कुमार ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत सन्‌ 1960 में फिल्म ‘हम हिन्दुस्तान ी ’ में दो मिनट की एक छोटी-सी भूमिका से की थी। सन्‌ 1962 में राजश्री फिल्म्स ने ‘आरत ी ’ नामक फिल्म के नायक की भूमिका के लिए उनका ऑडीशन लिया। संजीव कुमार को उस ऑडीशन में असफल घोषित कर दिया गया था ।

शुरुआत में उन्होंने कुछ बी 'ग्रे ड' फिल्मों में भी काम किया। वे पहली बार तब सुर्खियों में आए, जब उन्होंने 1968 में ‘संघर् ष ’ फिल्म में अभिनय सम्राट दिलीप कुमार की अदाकारी को अपने शानदार अभिनय की चमक से फीका कर दिया ।

ये वह समय था, जब हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में स्टारडम की शुरुआत हो चुकी थी। राजेश खन्ना पहले सुपर स्टार घोषित हो चुके थे। अमिताभ बच्चन ‘एंग्री यंग मै न ’ के रूप में आम आदमी के आक्रोश को व्यक्त कर रहे थे और इन दोनों से पहले देव आनंद हिन्दी सिनेमा के पहले स्टाइल गुरु बन चुके थे। ऐसे संक्रमण काल में संजीव कुमार इन सभी से अप्रभावि त, चुपचाप अपना एक अलग मुकाम बना रहे थे। वे व्यावसायिक सिनेमा और ‘ऑफ द बी ट’ सिनेमा का भेद तो मिटा ही रहे थ े, साथ-ही-साथ उनका अपना अलग दर्शक वर्ग भी तैयार हो रहा थ ा, जो उनके मंदिर तो नहीं बना रहा थ ा, लेकिन हमेशा उनकी विविध, चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं का इंतजार करता था।

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सन्‌ 1972 में ‘कोशि श’ फिल्म से उनकी और गुलजार की फिल्मी जुगलबंदी की शुरुआत हुई, जो बाद में गहरी दोस्ती में तब्दील हो गई। ‘कोशि श’ में उन्होंने एक गूंगे-बहरे व्यक्ति की भूमिका को जीवंत करते हुए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया। संजीव कुमार ने अपनी शानदार अदाकारी से ये साबित कर दिया कि अभिनय शब्दों का मोहताज नहीं होता। उन्होंने आँखों और चेहरे को अभिनय का केन्द्र बिन्दु बनाया। उनके भाव प्रवण चेहरे की एक-एक भंगिमा वो प्रभाव पैदा करती थ ी, जो दूसरे अभिनेता शायद कई पन्नों के संवादों के सहारे भी शायद ही कर सकें।

कोशि श, परिच य, मौस म, आँध ी, नमकीन और अँगूर जैसी फिल्में वो अनमोल नगीने है ं, जो इन दोनों के तालमेल से फिल्मी संसार को मिले हैं। हालाँकि गुलजार की इच्छा थी कि वो संजीव कुमार को लेकर मिर्जा गालिब पर एक फिल्म बनाए ँ, लेकिन संजीव कुमार की असमय मौत की वजह से ऐसा नहीं हो पाया ।

संजीव कुमार उन चुनिंदा अभिनेताओं में से थ े, जिन्होंने अपनी भूमिका को बाकी सारे कामों से महत्वपूर्ण समझा। उनके अभिनय की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने लगभग एक साथ बन रही फिल्मों में जया भादुड़ी के पित ा, ससुर और प्रेमी की भूमिकाएँ निभाईं।

संजीव कुमार ने कभी किसी भूमिका की अवहेलना नहीं की और किसी भी तरह के रोल को गजब की विश्वसनीयता के साथ निभाया। फिर चाहे वह कोशिश फिल्म के गूंगे-बहरे व्यक्ति की भूमिका हो या अँगूर का कॉमिक डबल रो ल, शोले का लाचार ठाकुर हो या आँधी की महत्वाकांक्षी पत्नी का लो प्रोफाइल पति। हिन्दी सिनेमा में पहली बार संजीव कुमार ने एक ही फिल्म ‘नया दिन नई रा त ’ में नौ रसों को परिभाषित करती हुई नौ भूमिकाएँ निभाई थीं ।

परदे पर अपनी हर भूमिका को पूरी शिद्दत से निभाने वाले इस महान कलाकार का व्यक्तिगत जीवन अधूरा ही रह गया। कहा जाता है कि फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी द्वारा विवाह का प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने के बाद संजीव दोबारा किसी से प्रेम नहीं कर पाए ।

संजीव कुमार को इस बात का गहरा विश्वास था कि वो लम्बा जीवन नहीं जी पाएँगे, क्‍योंकि उनके परिवार की पिछली कई पीढ़ियों में कोई पुरुष सदस्य 50 वर्ष की उम्र पार नहीं कर पाया था। और वाकई अपनी अनेक फिल्मों में उम्रदराज व्‍यक्ति का किरदार निभाने वाला यह अदाकार 6 नवम्बर, 1985 को मात्र 47 साल की अवस्था में इस फानी दुनिया से कूच कर गया ।

हिन्दी सिनेमा जगत ने वास्तव में इस कलाकार की क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल नहीं किया। संजीव कुमार के असमय निधन ने हमें कई सशक्त भूमिकाओं के साक्षात्कार से वंचित कर दिया।
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