रॉय देखी तो अवाक रह गया : अर्जुन रामपाल

Webdunia
सोमवार, 2 फ़रवरी 2015 (17:38 IST)
लंबे समय बाद फिल्म अभिनेता अर्जुन रामपाल बड़े परदे पर 'रॉय' दिखाई देंगे। आखिर कहां थे वो इतने दिन? क्या कहते हैं वे रॉय के बारे में? इन बातों का खुलासा किया है अर्जुन ने इस बातचीत में : 

लंबे समय बाद आप फिल्म 'रॉय' के जरिये बड़े परदे पर नजर आएंगे? 
मुझे घिसा-पिटा काम करना पसंद नहीं। मैं हमेशा कंटेंट प्रधान फिल्मों में अच्छे चरित्रों को निभाने को ही प्राथमिकता देता हूं। फिल्म 'डी डे' और 'सत्याग्रह' के बाद मुझे लगा कि कुछ समय के लिए ब्रेक लिया जाए, तो छुट्टी भी मनाई। इससे एक ताजगी आ गई। इसके अलावा मैंने फिल्म 'रॉय' के निर्देशक विक्रमजीत के साथ इस स्क्रिप्ट पर भी काम किया जिसे मलेशिया में फिल्माया गया है। 
फिल्म को विदेश में ही फिल्माने की कोई खास वजह?
यह फिल्म ऐसे निर्देशक की कहानी है, जो अपनी फिल्म को हमेशा विदेशों में ही फिल्माता है। इसके अलावा जिस लोकेशन पर वह फिल्म बनाने जाता है, वह बहुत अच्छी होनी चाहिए थी, क्योंकि फिल्म 'रॉय' में लोकेशन भी एक चरित्र है। इस निर्देशक ने कभी भी अपनी फिल्म हिन्दुस्तान में नहीं फिल्माई।
 
फिल्म 'रॉय' में किस तरह का चरित्र निभाया है?
मैंने हमेशा एक्शन प्रधान फिल्में निर्देशित करने वाले फिल्म निर्देशक कबीर ग्रेवाल का चरित्र निभाया है। कबीर ग्रेवाल की गिनती सफलतम निर्देशकों में होती है। उनकी फिल्में एक्शन प्रधान होती हैं इसलिए उनकी फिल्मों के नाम होते हैं- 'गन', 'गन पार्ट वन', 'गन पार्ट टू'। अब वे 'गन पार्ट थ्री' बनाने जा रहे हैं। उनके पास पैसे तो बहुत है, पर कहानी और स्क्रिप्ट नहीं है। कबीर के पास आइडिया भी नहीं है। आखिर यह फिल्म कैसे बनेगी? जबकि कबीर ग्रेवाल पर जल्द से जल्द फिल्म बनाने का दबाव है, क्योंकि उनके पास पैसे आ गए हैं। जिसने पैसे दिए हैं यानी कि फाइनेंसर,  चाहता है कि जल्द से जल्द फिल्म बने। तो वह मलेशिया की इस लोकेशन पर पहुंचता है, जहां उसकी मुलाकात आयशा (जैकलीन फर्नांडीस) से होती है। आयशा के पास बहुत प्यारी स्क्रिप्ट है, पर उसके पास पैसा नहीं है। पहले वह अपनी फिल्म की शूटिंग पेरिस में करना चाहती थी। पैसे न होने की वजह से वह भी मलेशिया पहुंची है। उसे उम्मीद है कि मलेशिया में कुछ सरकारी अनुदान मिल जाएगा। कबीर व आयशा की मुलाकात होती है। आयशा की स्क्रिप्ट से कबीर प्रेरित हो जाता है और फिल्म बनाना शुरू करते हैं। फिर फिल्म का तीसरा चरित्र रॉय सामने आता है। उसके बाद हर पात्र की जिंदगी व कहानी में उथल-पुथल मच जाती है। 
 
कबीर ग्रेवाल और अर्जुन रामपाल में कितनी समानता है?
इस पर हमने फिल्म में भी बात की है। जब हम कोई चरित्र लिखते हैं या अभिनय से संवारते हैं तो कहीं न कहीं हम अपने संग बीती हुई चीजों को भी डालते हैं। अपनी जिंदगी की कुछ चीजों, अनुभवों को उसमें डालते ही हैं। इस फिल्म के दौरान मेरे साथ ऐसी कई चीजें हुईं जिन्हें मैं इस फिल्म में पिरो सका। पिछले साल निजी जिंदगी में मैंने अपने पिता को खोया था। फिल्म में भी कबीर के पिता को खोने का सीन है तो वह चीज मैंने उसमें तुरंत डाली।  
 
बॉलीवुड में आपको कई निर्देशकों के साथ काम करने का अनुभव है, तो जब आप फिल्म निर्देशक कबीर का चरित्र निभा रहे थे तब किसे ध्यान में रखा?
कबीर का चरित्र निभाते समय मैंने किसी एक निर्देशक को ध्यान में नहीं रखा। मैंने यह सोचा कि यदि मैं निर्देशक होता तो किस तरह का होता? कबीर ग्रेवाल है तो वह किस तरह का होगा? मेरी तरह कबीर ग्रेवाल एक्स्टोवर्ट नहीं है। वह ज्यादातर समय अपने घर में रहता है। बाहर जाकर बक-बक नहीं करता। कबीर ग्रेवाल को पुराने जमाने की चीजें ही अच्छी लगती हैं। वह ऐसी चीजों का संकलन करता रहता है। वह हमेशा अलग तरह की टोपी पहनता है। उसके पास उसी तरह के चश्मे हैं। कम्प्यूटर के जमाने में भी वह टाइपराइटर पर स्क्रिप्ट टाइप करता है। उसके शराब पीने का अंदाज भी अनूठा है। उसके अंदर 'ओवर कम्पल्सिव डिसऑर्डर' है। मुझे लगता है कि इस तरह की चीजें रचनात्मक इंसान में होती हैं। हमने सोचा कि यदि एक वूडी आईलैंड होगा तो तो वह किस तरह का होगा।
फिल्म के निर्देशक विक्रमजीत को लेकर क्या कहेंगे?
जब वह मेरे पास स्क्रिप्ट लेकर आया था तो मुझे बड़ा अजीब-सा लगा था। मैंने उससे कहा कि स्क्रिप्ट और इसका आइडिया तो बहुत अच्छा है, पर इसे बनाओगे कैसे? उसने मुझसे कहा कि वह बेहतर काम करेगा। जब फिल्म की शूटिंग चल रही थी तो हम अलग लोकेशन पर थे। काम इस गति से हो रहा था कि पता नहीं चल रहा था कि काम क्या बन रहा है। हमें अपने निजी दृश्य अच्छे लग रहे थे। यूं भी इस जटिल स्क्रिप्ट को एक प्रवाह में लाना आसान नहीं था। इस कथा को लोग समझ सकें, इस अंदाज में पेश करना बहुत बड़ी चुनौती थी। पर जब मैंने फिल्म देखी तो अवाक रह गया। मैंने जो उससे अपेक्षाएं की थीं, उससे कहीं ज्यादा बेहतर फिल्म बनाई है। प्रतिभाशाली निर्देशक है। कहानी बनाने का उसका अपना एक अलग अंदाज है। अब तक ऐसा निर्देशक मैंने नहीं देखा। मुझे यकीन है कि हर दर्शक को विक्रमजीत का इस तरह कहानी सुनाने का अंदाज पसंद आएगा। वह हर सीन में जो फिलोसॅफी लेकर आया है, उसे भी लोग इंज्वॉय करेंगे।
 
किसी चरित्र को निभाने में लुक कितना मायने रखता है?
बहुत मायने रखता है। कलाकार के तौर पर जब चरित्र का एक लुक पकड़ते हैं तो आपकी बॉडी लैंग्वेज, आपके बोलने का तरीका, आपका एक्सप्रेशन सब कुछ बदल जाता है। लुक बदलते ही आपको लगता है कि आप कुछ और हैं। सेट पर कबीर की टोपी पहनते ही मेरे हाव-भाव बदल जाते थे। मैं कबीर ग्रेवाल हो जाता था।
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