आम आदमी की कहानी है 'जेड प्लस' : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

Webdunia
-माहीमीत 
 
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का सिनेमा महज मनोरंजक ही नहीं होता। वे सिनेमा के जरिये समाज की तस्वीर दिखाते हैं। उसमें सामाजिक संदेश होता है और दर्शकों को उनकी फिल्म सोचने पर मजबूर करती है। उनकी नई फिल्म 'ज़ेड प्लस' 28 नवम्बर को रिलीज होने जा रही है जिसमें एक आम आदमी को ज़ेड प्लस सुरक्षा दी जाती है। पेश है उनसे बातचीत के मुख्य अंश : 
क्या कहानी है आपकी फिल्म 'जेड प्लस' की? 
जेड प्लस की कहानी फतेहपुर के असलम पंक्चरवाले की कहानी है। उसकी फतेहपुर में पंचर की एक छोटी सी दुकान है। एक दिन उसकी मुलाकात देश के प्रधानमंत्री से हो जाती है। वह उनके सामने अपनी एक इच्छा रखता है। इसी के एवज में उसे जेड प्लस की सुरक्षा मिल जाती है। इसके बाद 'असलम पंक्चरवाले' के जीवन में अजीब बदलाव आ जाता है। यही फिल्म की कहानी है। 
 
सिनेमा के जरिये 'असलम पंक्चरवाले' कि कहानी कहने क्यों जरुरत महसूस हुई?
-देखिये, सिनेमा आज अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। जहाँ तक  'असलम पंक्चरवाले' की कहानी की बात है तो मुझे आज की फिल्मों में अपने खुद के नायक कि कहानी कम ही देखने को मिलती है। खासतौर पर रोजाना जिंदगी से दो चार होनेवाले अपने नायक जैसे- रिक्शावाला, सब्जीवाला, ठेलेवाला या फिर रद्दीवाला। यही कारण है कि जब मुझे लेखक रामकुमार सिंह ने 'असलम पंचरवाला' की कहानी सुनाई तो मैंने फ़ौरन इसपर फिल्म बनाने की हामी भर दी। 
 
क्या आप मानते हैं कि एक आम आदमी को 'जेड प्लस' सुरक्षा मिल सकती है?
यही सवाल तो मेरी फिल्म कर रही है। आज फिल्म के जरिये कोई देश की विसंगतियों की बात नहीं करता है। यही तो इस देश का दुर्भाग्य है। 67 साल की आजादी में हमारे आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता है। आज भी आम आदमी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। रात-दिन की मेहनत के बाद भी अपनी जिंदगी गर्दिश में काट रहा है। क्या आम आदमी 5 साल में एक बार वोट देने के लिए ही है। क्या प्रजातंत्र महज चुनाव तक सीमित है। आम आदमी की असली ताकत हम भूल गए। असलम की कहानी भी यही है। 
 
जब आपके पास बड़े स्टार नहीं हो तो छोटे बजट की फिल्म बनाना जोखिम भरा नहीं है?
जरूर जोखिम है। असल में यह इंडस्ट्री का ट्रेंड जरूर है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हर कोई बड़े स्टारों के साथ 100 करोड़ की फिल्म बनाए। फिर 100 करोड़ की फिल्मों में कहानी भी क्या होती है? मसाला फिल्मों में 100 करोड़ फूंकने से फायदा क्या है? यदि छोटे बजट में सार्थक फिल्में बनती है तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। जहां तक मेरा सवाल है मुझे कोई कहानी पसंद आती तो मैं उसके लिए बाजार में निकल पड़ता हूं। 
'असलम पंक्चरवाले' के जरिए क्या परिवर्तन चाहते है आप?
मेरा मानना है दुनिया में जो भी बड़े नायक हुए है वह निचले तबके से ही आए हैं। जिन्होंने अभाव नहीं देखा वह बड़े मुकाम हासिल नहीं कर पाते हैं। असलम पंक्चरवाला भी अभाव में पला है। उसकी कहानी जरूर देश को आइना दिखाएगी। 
 
कभी रोमांटिक फिल्में बनाने का सोचा है?
रोमांटिक फिल्मों के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता। 
 
सिनेमा से कोई नई उम्मीद है?  
बाजीराव मस्तानी जैसी हिस्टोरिकल मूवी बनाने की खबर सुनता हूँ तो भारतीय सिनेमा से नई उम्मीद का अहसास होता है। लेकिन फिर भी मुझे पीरियड ड्रामा जो पेशन मांगता है वह फिल्मकारों में कम ही देखने को मिलता है। असल में हमारे यहाँ संसाधन से ज्यादा शिल्प की कमी दिखाई देती है। 
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