शत्रुघ्न सिन्हा : बंदूक की गोली जैसी ‘शॉट-गन’ की बोली

समय ताम्रकर
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खलनायक की परदे पर एंट्री हो और सिनेमाहॉल में दर्शक तालियों से उसका स्वागत करें, तो समझ लेना चाहिए कि वह किसी भी मायने में नायक से कमजोर नहीं है। हिन्दी सिनेमा ने महानायक के मुकाबले अनेक खलनायक पेश किए हैं।

चास-साठ के दशक में के.एन. सिंह, साठ-सत्तर के दशक में प्राण, अमजद खान और अमरीश पुरी। और इन्हीं के समानांतर फिल्म एण्ड टीवी संस्थान से अभिनय में प्रशिक्षित बिहारी बाबू उर्फ शॉटगन उर्फ शत्रुघ्न सिन्हा की एंट्री हिन्दी सिनेमा में होती है। यह वह दौर था जब बहुलसितारा (मल्टी स्टारर) फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धन बरसा रही थीं।

बड़बोले शॉटगन
अपनी ठसकदार बुलंद, कड़क आवाज और चाल-ढाल की मदमस्त शैली के कारण शत्रुघ्न जल्दी ही दर्शकों के चहेते बन गए। आए तो वे थे वे हीरो बनने, लेकिन इंडस्ट्री ने उन्हें खलनायक बना दिया। खलनायकी के रूप में छाप छोड़ने के बाद वे हीरो भी बने।

जॉनी उर्फ राजकुमार की तरह शत्रुघ्न की डॉयलाग डिलीवरी एकदम मुंहफट शैली की रही है। यही वजह रही कि उन्हें 'बड़बोला एक्टर' घोषित कर दिया गया। उनके मुँह से निकलने वाले शब्द बंदूक की गोली समान होते थे, इसलिए उन्हें 'शॉटगन' का टाइटल भी दे दिया गया।

शत्रुघ्न की पहली हिंदी फिल्म डायरेक्टर मोहन सहगल निर्देशित 'साजन' (1968) थी। इसमें नायिका आशा पारेख के साथ उनका छोटा रोल था। फिल्म क्लिक नहीं हुई। अभिनेत्री मुमताज की सिफारिश से उन्हें चंदर वोहरा की फिल्म 'खिलौना' (1970) मिली। इसके हीरो संजीव कुमार थे। बिहारी बाबू को बिहारी दल्ला का रोल दिया गया।

शत्रुघ्न ने इसे इतनी खूबी से निभाया कि रातोंरात वे निर्माताओं की पहली पसंद बन गए। उनके चेहरे के एक गाल पर कट का लम्बा निशान है। यह निशान उनकी खलनायकी का प्लस पाइंट बन गया। शत्रुघ्न ने अपने चेहरे के एक्सप्रेशन में इस 'कट' का जबरदस्त इस्तेमाल कर अभिनय को प्रभावी बनाया है।

रजनीकांत की पसंद
भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सितारों में से एक रजनीकांत ने अपने साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि शत्रुघ्न सिन्हा का मैनेरिज्म उन्हें बहुत पसंद है। अपनी कुछ फिल्मों में रजनी ने उसे दोहराया भी है। दोनों ने 'असली नकली' नामक फिल्म में साथ काम भी किया है।

1971 में शत्रुघ्न की दो फिल्में एक साथ प्रदर्शित हुई। देव आनंद की 'गेम्बलर' तथा गुलजार की फिल्म 'मेरे अपने'। इन फिल्मों में मंजे हुए खलनायक के ताजगी भरे तेवर के साथ शत्रुघ्न दिखाई दिए। इसी सिलसिले को उन्होंने फिल्म रामपुर का लक्ष्मण तथा भाई हो तो ऐसा (मनमोहन देसाई/1972) तथा एस. रामनाथन की फिल्म बाम्बे टू गोआ में जारी रखा।

सत्तर के दशक के मध्य में शत्रुघ्न ने अपने करियर को मीटरगेज से ब्राड गेज पर लाने की कोशिश की थी। सुभाष घई निर्देशित फिल्म कालीचरण (1976) में वे दोहरी भूमिका में दिखाई दिए। एक ईमानदार पुलिस इंसपेक्टर के साथ एक खूंखार कैदी के रोल को उन्होंने बखूबी निभाया। इस फिल्म ने शत्रुघ्न का आत्मविश्वास इतना बढ़ाया कि अगली फिल्मों में वे हीरो पर हावी होकर भारी साबित होने लगे।

इस बात के समर्थन में दुलाल गुहा की फिल्म दोस्त (1974) का उदाहरण दिया जा सकता है। इस फिल्म में शत्रुघ्न ने चलते पुर्जे पॉकेटमार का रोल किया था, जबकि धर्मेन्द्र उसका एक आदर्शवादी दोस्त था। गरम धरम को शत्रु ने जमकर टक्कर दी।

इसी तरह फिल्म गौतम गोविंदा (1979) में वे शशि कपूर पर भारी साबित हुए। सुभाष घई की कालीचरण (1976) और विश्वनाथ (1978) ने भी शत्रुघ्न की इमेज लार्जर देन लाइफ बनाने में मदद की थी।

अमिताभ ने कहा 'स्टाप'!
मजा तो तब आया, जब उस दौर के एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन के साथ शत्रुघ्न की एक के बाद एक अनेक फिल्में रिलीज होने लगीं। 1979 में यश चोपड़ा के निर्देशन की महत्वाकांक्षी फिल्म काला पत्थर आई थी। इसके नायक अमिताभ थे।

यह फिल्म 1975 में बिहार की कोयला खदान चसनाला में पानी भर जाने और सैक्रडों मजदूरों को बचाने की सत्य घटना पर आधारित थी। इस फिल्म में शत्रुघ्न ने मंगलसिंह नामक अपराधी का रोल किया था। इन दो महारथियों की टक्कर इस फिल्म में आमने-सामने की थी। काला पत्थर तो नहीं चली लेकिन अमिताभ-शत्रु की टक्कर को दर्शकों ने खूब पसंद किया।

आगे चलकर अमिताभ-शत्रुघ्न फिल्म दोस्ताना (राज खोसला), शान (रमेश सिप्पी) तथा नसीब (मनमोहन देसाई) जैसी फिल्मों में साथ-साथ आए। दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे, लेकिन बाद में गलतफहमियाँ पैदा हो गईं।

माना जाता है कि अमिताभ ने महसूस किया कि शॉटगन का दबाव उन पर बढ़ता जा रहा है तो उन्होंने शत्रुघ्न के साथ फिल्मों में आगे काम करने से अपने निर्माताओं को मना कर दिया।

हमेशा गरमा-गरम
शत्रुघ्न सिन्हा के फिल्मी किरदार हमेशा तने हुए, गुस्सैल, बदले की आग से भरपूर और गरम तेवर वाले रहे हैं। उनकी निजी जिंदगी में जैसी पर्सनेलिटी है, उससे बढ़कर परदे पर वह उभरी है। अस्सी का दशक शत्रुघ्न के करियर का हराभरा दशक रहा है। फिल्म क्रांति (1981-मनोज कुमार), वक्त की दीवार (1981-रवि टंडन), नरम-गरम (1981-ऋषिकेश मुखर्जी), कयामत (1983-राज सिप्पी), चोर पुलिस (1983-अमजद खान), माटी माँगे खून (1984-राज खोसला) और खुदगर्ज (1987- राकेश रोशन) का उल्लेख करना पर्याप्त होगा।

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अभिनेता से राजनेता
बिहारी बाबू का एक पैर यदि अभिनय के स्टुडियो में था तो दूसरा राजनीति के अखाड़े में। अस्सी के दशक में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली थी। अटल बिहारी बाजपेयी के मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे हैं। उनके मन में हमेशा एक इच्छा दबी रही कि अपने गृह प्रदेश बिहार के मुख्यमंत्री के सिंहासन पर उनकी ताजपोशी हो।

9 दिसम्बर 1941 को पटना में जन्म बिहारी बाबू के मुम्बई स्थित बंगले का नाम रामायण है। उनके बेटों का नाम लव-कुश है, जो फिल्मी दुनिया में पैर जमाने की कोशिश में लगे हुए हैं। अभिनेत्री पूनम से उनकी शादी हुई है, शादी के पहले रीना राय से उनके अफेयर के काफी चर्चे हुए थे।

बेटी सोनाक्षी की पहली फिल्म दबंग बॉक्स ऑफिस पर इतनी सफल रही कि वे देखते-देखते सितारा बन गई है। शत्रुघ्न सिन्हा को मध्यप्रदेश सरकार ने किशोर कुमार अलंकरण से सम्मानित भी किया है।

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