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मुगल ए आजम : एक प्रेम कहानी के 60 साल

हमें फॉलो करें मुगल ए आजम : एक प्रेम कहानी के 60 साल
, बुधवार, 5 अगस्त 2020 (12:40 IST)
"ताजमहल" हो या "मुगल-ए-आजम", ऐसी फिल्में बनाने के लिए बेशुमार पैसों की जरूरत होती है। लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं। केवल पैसा उँडेल देने से ये सब बनता तो अब तक शायद अनगिनत "ताजमहल" और "मुगल-ए-आजम" बन चुकी होतीं। लेकिन आज तक न दूसरा "ताजमहल" बन पाया न दूसरा "मुगल-ए-आजम" बनी।
 
दाद देना होगी के. आसिफ की जिद की, जिसने दुनिया के सामने इस कहानी को ये कहते पेश किया-
 
मुहब्बत हमने माना, जिंदगी बरबाद करती है
ये क्या कम है कि मर जाने पे दुनिया याद करती है,
किसी के इश्क में...
 
रूपहले पर्दे के इतिहास में कामयाबी के झंडे गाड़ती, मील का पत्थर, हाउसफुल के तख्तों से सिनेमा हॉल को रोशन करने वाली फिल्म यानी "मुगल-ए-आजम"। लगभग 150 सिनेमा घरों में एक साथ प्रदर्शित हुई। जिसने पहले ही सप्ताह में 40 लाख का कारोबार किया। उस दौर के मान से यह बहुत बड़ी बात थी। हिन्दी फिल्मों की पहली दस फिल्मों में अपनी जगह बना लेने वाली "मुगल-ए-आजम" 5 अगस्त 2020 को 60 साल पूरे किए।
 
दुल्हन की तरह सजकर तैयार मराठा मंदिर, मुंबई में 5 अगस्त 1960 को रात 9 बजे हाथी पर सवार "मुगल-ए-आजम" की प्रिंट लाई गई। मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण व नामी गिरामी हस्तियों को न्योता दिया गया था। 85 प्रतिशत श्वेत-श्याम और 15 प्रतिशत रंगीन फिल्म पर से पर्दा उठा। 
 
हॉल में सन्नाटा रहा। धीरे-धीरे उबासी, कानाफूसीयाँ बढ़ने लगीं। 19 रील से आखिर तक तो माहौल में मरघट की शांति छा गई। आसिफ के फार्जेट स्ट्रीट स्थित घर में विज्ञापन को लेकर चर्चा के लिए जमा सभी का उत्साह नदारद था। एकमत से सबने कहा कि फिल्म पूरी तरह फ्लॉप है, सिर्फ और सिर्फ आसिफ पर इस मुर्दानगी का कोई असर नहीं था। "सिर्फ हफ्ते भर रुको, फिल्म चलेगी"। लेकिन भरोसा करने को कोई भी तैयार नहीं था।
 
इधर फिल्म को लेकर दर्शकों की बेचैनी का आलम यह रहा कि पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका से लोग आए थे। आज की तरह ई-मेल से बुकिंग की सुविधा तो नहीं थी सो दर्शकों ने तीन-तीन दिन पहले से कतार लगा दी, जो रात को भी वहीं कतार में सोते थे।
 
दिलीप कुमार को नकारा
"मुगल-ए-आजम" के बारे में सुनकर किसी ने के. आसिफ को दिलीप का नाम सुझाया था तब आसिफ ने हँसकर जवाब दिया था "किसी नए घोड़े पर दाँव लगाकर मुझे "मुगल-ए-आजम" का एरावत दलदल में उतारने की कतई ख्वाहिश नहीं। कमरुद्दीन यानी के. आसिफ ने अपने इस सपने को पूरा करने अकबर के दीवाने सेठ शापूर पालन जी को साधा।
 
अनारकली नूतन या मधुबाला 
दिलीप को लेकर "हलचल" में विवाद के चलते नरगिस के इंकार से नई अनारकली की खोज कुछ देर मराठी नूतन पर जा रुकी। और आखिर बगैर अनारकली के फिल्म का काम आगे बढ़ा। फिल्म के दौरान सलीम-अनारकली (दिलीपकुमार-मधुबाला) दोनों का प्यार निजी जिंदगी में भी परवान चढ़ता बीच ही में "नया दौर" आ गई। 
 
बादशाह अकबर और पृथ्वीराज 
अकबर यानी पृथ्वीराज का काम देख उनके अतिरिक्त और किसी की कल्पना ही गले नहीं उतरती। लेकिन सेट पर वे अक्सर आसिफ के सिर पर सवार रहते "मैं अकबर को कैसे करूँ?" तब आसिफ ने कुछ "टिप्स" दीं कि सेट पर तो छोड़िए आप घर में भी बादशाह की तरह पेश आइए। कोई भी काम खुद न करते शाही अंदाज में सिर्फ हुकुम दीजिए। हमेशा आवाज में हुक्म का बेस रखें। ये बातें पृथ्वीराजजी की आदत में इस तरह शामिल हुईं कि जानकारों के मुताबिक उनकी आवाज ही बदल गई।
 
"सलीम-ए-आजम" नहीं "मुगल-ए-आजम" 
सलीम के किरदार को लेकर दिलीपकुमार भी कुछ नाराज ही रहे। कहानी सुनाते वक्त लगा था कि सारा कुछ अकबर के ही इर्दगिर्द है, लेकिन आसिफ के समझाने पर माने। सलीम के लिए खासतौर पर बनी विग लंदन से मँगवाई गई। बावजूद इसके दिलीप का बुदबुदाना जारी ही था। तब झल्ला कर आसिफ ने कहा- "मैं "सलीम-ए-आजम" नहीं बनाना चाहता हूँ, मुझे "मुगल-ए-आजम" बनाना है।"
 
बादशाह के जूते 
अकबर बादशाह के लिए आसिफ ने (60 साल पहले) 4 हजार रुपए के जूते खरीदे। यह रकम उस वक्त के हिसाब से काफी बड़ी थी, क्योंकि उस दौर में प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर की तनख्वाह ही मात्र 20 रुपए थी। ऐसे में आरडी माथुर (कैमरामैन) ने आसिफ से कहा- कमरुद्दीन भव्य निर्माण के नाम पर बेवजा खर्च? क्या तुम्हारे जूते कैमरे में नजर भी आएँगे? तब अपने खास अदांज में सिगरेट सुलगाते हँसकर कहा "अरे माथुर, ये जूते कितने मँहगे हैं इस बात का अंदाजा जब मेरे अकबर को होगा तब उसकी चाल और बोली में जो एक अलहदा शान होगी। तब उसके जूते नहीं उस अकबर के चेहरे पर नजर आने वाली शान मुझे कैमरे में कैद करनी है। 
 
रीटेक पर रीटेक 
दिलीप साहब के मुताबिक "अकबर जब शेख चिश्ती की दरगाह पर मन्नात माँगने तपती बालू रेत में जाते हैं। उस सीन को आपने ठीक से देखा है? उस दृश्य की शूटिंग के वक्त आसिफ साहब ने बहुत रीटेक किए। जिसके चलते पृथ्वीराजजी भी कुछ "डिस्टर्ब" हुए थे। इस दृश्य में इतना क्या है? हम लोग अपनी "खास" गपशप में निर्देशक का मजाक उड़ाते थे लेकिन जब पर्दे पर दृश्य आया तब सिगरेट का धुँआ फूँकते आसिफ ने अपने दोस्त से सवाल किया- बताओ अब किस चाल में तुम्हें अधिक नजाकत नजर आती है? पीठ पर पालकी लादे डोलते हाथी की चाल में या बालू रेत पर चलने वाले मेरे अकबर में?"
 
शीशमहल और प्यार किया तो... 
इंदौर के शीशमहल में शूटिंग की इजाजत न मिलना तब चर्चा में रहा। आसिफ ने वैसा ही सेट खड़ा करने की जिद पकड़ ली। जिसमें पूरे दो साल लगे। 35 फुट ऊँचे 80 फुट चौड़े और 150 फुट लंबे इस शीशमहल में बेल्जियम शीशों का इस्तेमाल हुआ। जिसके लिए शापूरजी ने 15 लाख रुपए गिने थे। शीशमहल के रंग-बिरंगे शीशों के चलते प्रकाश परावर्तित होने पर फिल्मांकन नहीं हुआ तो मैं सारे शीशे फोड़ दूँगा। आसिफ ने तकनीशियन से कहा। 
 
इधर 8 साल हो गए, पर फिल्म पूरी होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे तब शापूर ने इसकी जिम्मेदारी सोहराब मोदी को सौंपते 30 दिन में फिल्म पूरी करने को कहा। लेकिन रजामंदी देने से पहले शीशमहल का सेट नए सिरे से बनाने की चर्चा जोरों पर थी। इतने में गर्जदार आवाज आई "जो मेरा शीशमहल तोड़ने की हिम्मत करेगा, उसका पैर टूटेगा" हालाँकि बाद में आसिफ ने मोदी से अपनी बदतमीजी की माफी माँगते एक दृश्य फिल्मा कर निगेटिव लंदन भेजते नतीजा जानने की इजाजत चाही। शापूर चिढ़े जरूर लेकिन इंकार नहीं कर सके। यूनिट डरते-डरते नतीजे का इंतजार कर रही थी कि लंदन की लैब ने फैसला सुनाया "अप्रतिम"। और आसिफ ने सपने देखना फिर शुरू कर दिया। 
 
मोदी, आसिफ और टैक्सीवाला
सोहराब मोदी स्टूडियो से बाहर निकले किस्मत से उनकी गाड़ी खराब हो गई। कंपनी की गाड़ी छोड़ने आई, तब कंपनी के ड्रायवर ने खुद होकर मोदी से कहा -"साहब ये आसिफ मियाँ भी एक अजब इंसान हैं। यहाँ शूटिंग के लिए अनारकली के बदन पर खरे हीरे-मोती की जिद करता है। दिन में हीरे पन्नों से खेलता है, लेकिन रहता सादे घर में है। उसके बदन पर पहने कुर्ते पाजामे के अलावा एकाध जोड़ ही और होगी। सोता भी चटाई पर है, लेकिन पगार हाथ आई नहीं कि यार दोस्तों में बँट जाती है, बहुत भला आदमी है साब"। घर पहुँचते ही मोदी ने शापूर को फोन मिलाया। "आपका आसिफ नामक निर्देशक पैदाइशी कलाकार है। अपनी फिल्म का भला चाहते हैं तो उसका निर्देशन, मुझे तो क्या किसी और को भी मत दीजिए यह फिल्म आसिफ को ही पूरी करने दें।"
 
- ज्योत्स्ना भोंडवे

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