हिंदी फिल्मों में सफेद झक सूट, तितलीनुमा 'बो टाई' और कीमती पाइप से धुआं उड़ाते अंग्रेजी-हिंदी के चुटीले, एक पंक्ति वाले संवाद सपाट चेहरे और विकृत दृश्य बोध के साथ उगलते अजीत उर्फ हमीद अली खान ने खलनायकी को एक नए अंदाज में पेश किया था। सत्तर के दशक में अजीत ने अपने इस अनोखी शैली के 'विलेन' को जन्म प्रकाश मेहरा की फिल्म 'जंजीर' में तेजा की भूमिका से दिया था। लगे हाथ बतला दिया जाए कि यह वही 'जंजीर' फिल्म थी, जिसने अमिताभ बच्चन तथा लेखक जोड़ी सलीम-जावेद की तकदीर के दरवाजे भी खोल दिए थे।
27 जनवरी 1922 को जन्मे अजीत की शैली उनके समकालीन खलनायकों (प्रेम चोपड़ा, रंजीत) तथा बाद के मोगाम्बो आदि से बिलकुल भिन्न थी। उनके खलनायक के रूप में उद्भव के पूर्व ही प्राण की 'ड्राइंग रूम वाली' खलनायकी खत्म हो गई थी। अजीत की 'स्टाइल' किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी के प्रबंध निदेशक जैसी थी। वे निहायत ही तसल्ली के साथ अपने चेले-चपाटियों, जिनके नाम अक्सर जैक या रॉबर्ट होते थे, को नायक को ठिकाने लगाने के आदेश देते थे। कुटिल मुस्कान के साथ वे अपनी 'मोना डार्लिंग' को भी अपनी खिलौनेनुमा पिस्तौल से चट-पट 'निपटा' देने में देर नहीं करते थे।
मुक्केबाजी और मारा-मारी में उनका विश्वास नहीं था। नए-नए अस्त्र-शस्त्र, यातना के वैज्ञानिक उपकरण तथा हट्टे-कट्टे हुक्म के गुलामों की मदद से वे सिगार का धुआं उड़ाते हुए नायक की चालों को तब तक नाकाम करते रहते थे, जब तक कि फिल्म की 17वीं रील में नायक और उसके बाद 'पुलिस' उनका खेल एकबारगी खत्म नहीं कर देती थी।
'डोंट बी सिली, लिली', 'लिक्विड तुम्हें जीने नहीं देगा, ऑक्सीजन तुम्हें मरने नहीं देगी', 'कहो तो फिर अंदर कर दूं' जैसे उनके फिकरे उनके प्रशंसक अब भी दुहराते हैं। उनका यही रूप उनकी 'नौजवान', 'जुगनू', 'यादों की बारात', 'धर्मा', 'छुपा रुस्तम', 'कालीचरण' जैसी फिल्मों में उजागर हुआ था।
अजीत का प्रवेश हिंदी फिल्मों में सन् 1946 में 6 वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद 'शाहे-मिसर' नामक फिल्म से हुआ था। यह तथा इसके बाद की पांच फिल्में, जिनमें एक 'बेकसूर' उन्होंने मधुबाला के साथ की थी, पिट गई। इसके बाद 1949 में निर्देशक ने हमीद अली खान का नाम बदलकर अजीत किया।
फिल्मिस्तान की आई.एस. जौहर निर्देशित फिल्म 'नास्तिक' में उनकी नायिका नलिनी जयवंत थीं और यह काफी सफल भी रही, लेकिन जल्दी ही अजीत ने यह महसूस कर लिया कि उनका खुरदरा चेहरा और तगड़ा जिस्म उस जमाने के फिल्मी नायकों की छवि के उपयुक्त नहीं था। उन्होंने बगैर किसी शिकवे के चरित्र अभिनेता की भूमिकाएं स्वीकारनी शुरू कर दीं। 'नया दौर' और 'मुगल-ए-आजम' में दिलीप कुमार के साथ की हुई उनकी भूमिकाएं अभी भी याद की जाती है। 'मुगल-ए-आजम' के तमिल संस्करण के संवाद भी उन्हें शब्दश: याद थे।
सन् 1982 से वे धीरे-धीरे फिल्मों से निवृत्त होने लगे। उद्योग में अनुशासनहीनता और बढ़ता गैर पेशेवराना माहौल उन्हें रास नहीं आया। रही-सही कसर दिल की बीमारी ने पूरी कर दी। उनके हृदय की 'बाय-पास' शल्य क्रिया अमेरिका के प्रख्यात सर्जन डेंटन कूली ने खुद की थी। इसके बाद वे अपने गृहनगर हैदराबाद में अंगूर और अनार की खेती करने लगे थे। बाद में उन्होंने निर्माता-निर्देशकों के आग्रह पर कुछ फिल्में भी कीं। 22 अक्टोबर 1998 को उन्होंने हैदराबाद में अंतिम सांस ली।
- हेमचंद्र पहारे
(पुस्तक नायक-महानायक से साभार)