' चुपके-चुपके' की जान थे धर्मेंद्र और ओमप्रकाश। प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी (धर्मेंद्र) इस बात से परेशान है कि उसकी नई-नवेली बीवी सुलेखा (शर्मिला) अपने जीजाजी (ओमप्रकाश) को दुनिया का सबसे चतुर इंसान समझती है और दावा करती है कि जीजाजी को कोई बुद्धू नहीं बना सकता।
परिमल जीजाजी को बुद्धू बनाने का बीड़ा उठाता है और पहुँच जाता है उनके यहाँ ड्राइवर प्यारेमोहन बनकर। जीजाजी ने न दामाद साहब को देखा है और न उनकी तस्वीर, सो वे आ जाते हैं झाँसे में। उनके शुद्ध हिन्दी के आग्रह को देखते हुए 'प्यारेमोहन' उनसे भी ज्यादा शुद्ध हिन्दी बोलकर उनकी बोलती बंद करता है।
जब सुलेखा वहाँ आती है, तो दीदी-जीजाजी के होश यह देख उड़ जाते हैं कि सुलेखा और प्यारेमोहन के बीच कुछ खिचड़ी पक रही है! फिर एक दिन ये दोनों 'भाग' जाते हैं... और तभी परिमल का दोस्त सुकुमार (अमिताभ) आ धमकता है परिमल त्रिपाठी बनकर!
अब दामाद साहब को कैसे बताया जाए कि उनकी पत्नी तो ड्राइवर के साथ भाग गई! ऊपर से सितम यह कि सुकुमार इस साजिश में शामिल एक अन्य मित्र पीके श्रीवास्तव (असरानी) की साली वसुधा (जया) पर लट्टू हो जाता है, जो सुकुमार को शादीशुदा परिमल समझती है!
' चुपके-चुपके' में अनेक यादगार दृश्य व प्रसंग थे। प्यारेमोहन और जीजाजी के बीच नोंकझोंक के दृश्य हों या फिर वे दृश्य जहाँ जीजाजी सुलेखा की करतूतों से स्वयं को बेबस, लाचार और शर्मिंदा पाते हैं या 'परिमल' उर्फ सुकुमार द्वारा वसुधा को बॉटनी का पाठ पढ़ाने वाला दृश्य...।
फिल्म की पूरी थीम एक गाने 'अबके सजन सावन में...' में उभरकर आती है। दीदी, जीजाजी और पारिवारिक मित्रों को सुलेखा गीत सुनाने लगती है और प्यारेमोहन बना परिमल पर्दे की ओट में खड़ा होकर सुनने आ जाता है। 'दो दिलों के बीच खड़ी कितनी दीवारें...' और 'किस तरह हम देंगे भला दुनिया को धोखा...' जैसी पंक्तियाँ गाकर सुलेखा जीजाजी के दिमाग में शक के कीड़े को उकसाती है।
फिर सुलेखा दरवाजे के पास आकर गाने लगती है, दोनों पर्दे के आरपार हाथ थामते हैं। तभी जीजाजी को दाल में कुछ काला लगता है और वे बड़े स्टाइल से टहलते हुए आते हैं और पर्दे के पार झाँकने का प्रयास करते हैं। सुलेखा का इशारा पाते ही प्यारेमोहन चंपत हो जाता है और जीजाजी की आँखों में एक बार फिर धूल झोंक दी जाती है...। कथा, पटकथा, संवाद, निर्देशन और अभिनय का बेमिसाल मेल है 'चुपके-चुपके'।