खेलें हम जी जान से : गुमनाम शहीदों के नाम

समय ताम्रकर
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निर्माता : सुनीता गोवारीकर, अजय बिजली, संजीव के. बिजली
निर्देशक : आशुतोष गोवारीकर
संगीत : सोहेल सेन
कलाकार : अभिषेक बच्चन, दीपिका पादुकोण, सिकंदर खेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 18 रील * 2 घंटे 55 मिनट
रेटिंग : 3/5

इतिहास को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने वाले आशुतोष गोवारीकर ने इस बार उन शहीदों की कहानी चुनी है‍ जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपनी जान दी है और जो गुमनाम से हैं। आजादी की लड़ाई में इनका योगदान किसी से भी कम नहीं है।

18 अप्रेल 1930 को चिटगाँव में सुरज्य सेन के नेतृत्व में किशोरों ने अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर एक साथ हमला बोला था और इसकी गूँज लंदन तक पहुँची थी। मानिनि चटर्जी की पुस्तक ‘डू एंड डाई - द चिटगाँव अराइजिंग 1930-34’ पर यह फिल्म आधारित है और जिस सत्य घटना को दिखाया गया है उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।

सूर्ज्या सेन (अभिषेक बच्चन) और उसके साथियों का आजादी पाने का रास्ता गाँधीजी से अलग था। उनके द्वारा गठित भारतीय गणतंत्र सेना गाँधीजी के आह्वान पर एक वर्ष तक हिंसा का रास्ता नहीं चुनती।

एक वर्ष होते ही वे अपने गाँव को अँग्रेजों से मुक्त कराने की योजना बनाते हैं। इसमें उन्हें साथ मिलता है 56 किशोरों का जिनके उस मैदान पर अँग्रेजों ने कब्जा कर‍ लिया जहाँ वे फुटबॉल खेलते थे।

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वे सुरज्य के पास मैदान आजाद कराने के लिए जाते हैं और देश की आजादी के आँदोलन से जुड़ जाते हैं। कल्पना दत्ता (दीपिका पादुकोण) और प्रीति नामक दो महिलाएँ भी साथ हो जाती हैं।

ये सब मिलकर एक ही रात अँग्रेजों के अलग-अलग ठिकानों पर हमला करते हैं। टेलीग्राम ऑफिस ध्वस्त कर देते हैं। रेलवे लाइन अवरुद्ध कर देते हैं। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब तो नहीं होती है, लेकिन वे भारतीयों में आजादी की लड़ाई जोश भरने में कामयाब होते हैं।

भ्रष्टाचार और घोटाले के इस दौर में आशुतोष की प्रशंसा इसलिए की जा सकती है कि उन्होंने याद दिलाने की कोशिश की है इस आजादी के लिए हमारे पूर्वजों ने कितना खून बहाया है।

आशुतोष के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी बात कहने में लंबा वक्त लेते हैं। सीन को बहुत लंबा रखते हैं। ‘खेलें हम जी जान से’ को भी अंतिम 40 मिनटों में फिजूल ही खींचा गया है।

सिपाहियों द्वारा क्रांतिकारियों को घेरने वाले दृश्य दोहराए गए हैं। कायदे से तो हमलों के बाद ही फिल्म को खत्म किया जा सकता था और चंद मिनटों में ये बताया जा सकता था कि सभी का क्या हुआ।

क्रांतिकारियों द्वारा एक साथ किए गए हमलों को और भी बेहतर तरीके से पेश किया जा सकता था क्योंकि इनमें से थ्रिल गायब है और कौन क्या कर रहा है, ये समझना थोड़ा मुश्किल हो गया है।

इन कमियों के बावजूद भी फिल्म बाँधकर रखती है क्यों यह अपनी मूल थीम से यह नहीं भटकती है। फिल्म को बांग्लादेश के बजाय गोआ में फिल्माया गया है, लेकिन यह फर्क नजर नहीं आता। कलाकारों की ड्रेसेस, मकान, सामान, कार हमें 80 वर्ष पीछे ले जाते हैं। फिल्म के अंत में क्रांतिकारियों के मूल फोटो दिखाकर भी एक सराहनीय काम किया गया है।

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फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पाइंट है अभिषेक बच्चन। एक क्रांतिकारी में जो जोश, तेवर, आँखों में अंगारे, जुनून दिखाई देना चाहिए था, वो सब अभिषेक में से नदारद है। नीरस तरीके से उन्होंने अपनी भूमिका निभाई है और ज्यादातर उनका चेहरा सपाट नजर आता है। उनसे अच्छा अभिनय तो उनके साथियों के रूप में मनिंदर, सिकंदर खेर, फिरोज वाहिद खान ने किया है। नॉन ग्लैमरस रोल में दीपिका और विशाखा सिंह प्रभावित करती हैं।

फिल्म की थीम के अनुरुप कुछ गाने भी हैं, जो नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। बांग्ला टच लिए हुए डॉयलॉग्स साधारण हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और समझा जा सकता है कि निर्देशक ने सीन नहीं काटने के लिए दबाव बनाया होगा।

कुल मिलाकर ‘खेलें हम जी जान से’ में एक सत्य घटना को ईमानदारी के साथ पेश करने की कोशिश की गई है और देशभक्ति को बनावटी तथा नाटकीयता से दूर रखा गया है। वंदे मातरम।

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