झूठा ही सही : लंबी और उबाऊ

समय ताम्रकर
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बैनर : सारेगामा-एचएमवी
निर्माता : मधु मंटेना
निर्देशक : अब्बास टायरवाला
संगीत : ए.आर. रहमान
कलाकार : जॉन अब्राहम, पाख ी, मानस ी स्कॉ ट, रघ ु रा म, जॉर् ज यं ग, आ र माधव न, नंदन ा सेन
यू/ए सर्टिफिकेट * 17 रील * 2 घंटे 29 मिनट
रेटिंग : 1.5/5

‘झूठा ही सही’ का सबसे बड़ा माइनस पाइंट इसकी हीरोइन पाखी है। जब आप कमर्शियल फार्मेट को ध्यान में रखकर लव स्टोरी बना रहे हैं तो हीरोइन का सुंदर होना जरूरी होता है। नि:संदेह पाखी ने अच्‍छी एक्टिंग की है, लेकिन उनमें हीरोइन मटेरियल नहीं है। वे हीरोइन की परिभाषा पर खरी नहीं उतरती और उम्र भी उनकी कहीं ज्यादा है।

पाखी के पति अब्बास टायरवाला भी कम दोषी नहीं हैं। एक तो उन्होंने पाखी को हीरोइन बनाया और दूसरा ये कि कहानी को इतना ज्यादा खींचा गया कि फिल्म देखते-देखते ऊब होने लगती है और थकान चढ़ने लगती है। इस फिल्म को कम से कम एक घंटा कम किया जा सकता है क्योंकि कई दृश्य लगातार दोहराए गए हैं।

सिद्धार्थ (जॉन अब्राहम) की ‘कागज के फूल’ नाम से लंदन में एक बुक शॉप है। स्मार्ट सी लड़की से बात करते हुए वह हकलाने लगता है (बड़ी अजीब प्राब्लम है)। एक रात सुसाइड हेल्पलाइन के फोन गलती से सिड के फोन पर आने लगते हैं, जिसमें मिष्का (पाखी) का फोन भी रहता है।

मिष्का को उसके प्रेमी कबीर (माधवन) ने धोखा दे दिया है और वह आत्महत्या करने की सोच रही है। सिड उसे समझाता है और बातों ही बातों में अपने बारे में कई झूठ बोल देता है। मिष्का को उससे बात करना अच्छा लगता है और वह उसे फिदातो कहकर बुलाती है।

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इसी बीच सिड की मुलाकात मिष्का से होती है और वह उसे चाहने लगता है। मिष्का भी उसे पसंद करती है और उसके बारे में हेल्पलाइन पर फिदातो से बातें भी करती है। उसे नहीं पता रहता कि फिदातो और सिड वास्तव में एक ही इंसान है। किस तरह सिड का राज खुलता है और मिष्का पर क्या गुजरती है, यह फिल्म का सार है।

इस कहानी के साइड में दूसरे ट्रेक्स भी हैं, कुछ मजेदार हैं तो कुछ बोर। सिड के दोस्तों वाला ट्रेक मनोरंजक है। ऐसा लगता है कि अब्बास टायरवाला ने अपनी पिछली फिल्म ‘जाने तू...या जाने ना’ के किरदारों को यहाँ भी फिट कर दिया है। मस्तमौला किस्म के इंसान। खाना-पीना और मौज करना। धर्म, जात-पात जैसी बातों से दूर। लिबास के साथ-साथ विचारों में भी आधुनिक।

सिड का एक दोस्त पाकिस्तानी है और हिंदुस्तान-पाकिस्तान को लेकर कुछ मनोरंजक संवाद हैं। इसी तरह उनके दोस्तों में ‘गे’ भी शामिल हैं, जिसे वे बिलकुल भी हिकारत की नजर से नहीं देखते हैं। दोस्तों के बीच के कुछ दृश्य और संवाद बेहतरीन बन पड़े हैं।

निर्देशक अब्बास टायरवाला का प्रस्तुतिकरण बहुत ज्यादा बनावटी और नकली है। इससे किरदार और दर्शकों में कोई तारतम्य स्थापित नहीं होता। दर्शकों को हँसाने की कोशिश साफ नजर आती है।

फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी पकड़ आती है, लेकिन क्लाइमैक्स में फिर कमजोर हो जाती है। सिड को मिष्का ब्रिज तक पहुँचने के लिए सिर्फ दस मिनट ही क्यों देती है? शायद जबरदस्ती की भागमभाग दिखाने के लिए यह ड्रामा किया गया।

अभिनय के लिहाज से ये जॉन अब्राहम का सबसे बेहतरीन परफॉर्मेंस है। पहली बार बजाय अपने डील-डौल के उन्होंने अभिनय से प्रभावित किया है, हालाँकि हकलाते हुए उन्होंने कई बार ओवरएक्टिंग भी की है।

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सिड के दोस्तों के रूप में मानसी स्कॉट और रघु राम का अभिनय बेहतरीन है। माधवन का किरदार बहुत ही घटिया तरीके से लिखा गया है और वे बिलकुल भी नहीं जमे। नंदना सेन भी छोटे-से रोल में नजर आईं।

संगीतकार के रूप में एआर रहमान निराश करते हैं। गीत के बोल अच्छे हैं, लेकिन ‘क्राय क्राय’ को छोड़ दिया जाए तो अन्य गीतों की धुनें औसत दर्जे की है। बैकग्राउंड म्यूजिक जरूर उम्दा है। लंदन में इस फिल्म को खूबसूरती से फिल्माया गया है।

कुल मिलाकर ‘झूठा ही सही’ लंबी और उबाऊ फिल्म है।

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