तीन थे भाई : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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निर्माता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा
निर्देशक : मृगदीप सिंह लांबा
संगीत : सुखविंदर सिंह, रंजीत बारोट
कलाकार : ओम पुरी, श्रेयस तलबदे, दीपक डोब्रियाल, योगराज सिंह, रागिनी खन्ना
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 8 रील * 2 घंटे 10 मिनट
रेटिंग : 2/5

तीन थे भाई की कहानी सुनने में या पढ़ने में दिलचस्प लगती है, लेकिन स्क्रीन पर देखते समय उतनी ही बुरी लगती है। कागज पर लिखी गई कहानी का ठीक से फिल्मी रूपांतरण नहीं किया गया है। वैसे भी इस तरह की कहानियों पर 50 वर्ष पहले फिल्में बना करती थी। टीवी धारावाहिक इस कहानी पर बनाया जाता तो बेहतर होता। एक अच्छे आइडिये का फिल्मी प्रस्तुतिकरण पेश करने में निर्देशक और लेखक नाकामयाब रहे हैं। फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो हँसाते हैं, लेकिन बचकाने दृश्यों की कमी भी नहीं है।

‘तीन थे भाई’ की खासियत है इसके कैरेक्टर्स। तीनों भाइयों के किरदारों पर अच्छी मेहनत की गई है। एक फ्लॉप एक्टर है तो दूजा नाकामयाब डेंटिस्ट। तीसरा भाई अपने आपको बिजनेस मैन कहता है जबकि उसकी एक छोटी-मोटी दुकान है। इन किरदारों के परिचय वाले दृश्य मनोरंजक हैं।

तीनों भाई अलग-अलग रहते हैं और एक-दूसरे से नफरत करना उनमें कॉमन बात है। दादा की मौत की वजह से तीनों इकठ्ठा होते हैं। दादा लंबी-चौड़ी जायदाद छोड़ जाते हैं इस शर्त के साथ की उनकी बरसी पर लगातार तीन वर्ष तक तीनों को एक दिन के लिए साथ रहना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं तो जायदाद उनकी। कड़के भाई मजबूरीवश ऐसा करते हैं।

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इस कहानी का जो स्क्रीनप्ले लिखा गया है उसमें मनोरंजन का स्तर एक जैसा नहीं है। थोड़ी-थोड़ी देर में हाइवे और कच्चे रास्ते का अहसास होता रहता है। शुरुआत में बर्फीले तूफान में तीनों भाइयों के इकठ्ठा होकर बातचीत करने वाला हिस्सा उबाऊ है। इसके बाद ड्रग्स, विदेशी लड़कियाँ, पुलिस वाले ट्रेक भी ठूँसे हुए लगते हैं।

फिल्म की कहानी को लेकर भी कई सवाल खड़े किए जा सकते हैं। तीनों भाइयों के दादा ऐसा कैसे सोच सकते थे कि तीन साल में तीन दिन बिताने से ही भाइयों में फिर एकता स्थापित हो जाएगी? सिर्फ तीन दिन साथ रहने से ही उन्हें जायदाद दे दी जाएगी, भले ही इसके बाद उनमें न प्यार हो और न वे साथ रहते हों?

तीनों साथ में कैसे रह रहे हैं इसे देखने की जिम्मेदारी किसे सौंपी गई है? हालाँकि एक जासूस को बताकर इस कमी को छिपाने की कोशिश की गई है, लेकिन बात नहीं बनी। आपस में लड़ने वाले तीनों भाई अंत में कैसे एक हो जाते हैं? कैसे उनका हृदय परिवर्तन हो जाता है? इसके जवाब भी संतुष्ट करने लायक नहीं है। कहानी को किसी तरह खत्म किया गया है।

निर्देशक के रूप मृगदीप सिंह लांबा को सीखने की जरूरत है।‍ फिल्म पर उनकी पकड़ ढीली है और कई दृश्यों में उनकी गलतियाँ नजर आती है। फिल्म के संपादन में चुस्ती का अभाव है। सुखविंदर सिंह और रंजीत बारोट का संगीत अच्छा है। गुलजार ने उम्दा बोल लिखे हैं जिन्हें दलेर मेहँदी ने बेहतरीन तरीके से गाया है। अशोक मेहता का कैमरावर्क बढ़िया है।

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एक्टिंग फिल्म का स्ट्रांग पाइंट है क्योंकि सभी कलाकार सशक्त अभिनेता हैं। ओम पुरी ने लाउड पंजाबी कैरेक्टर को अच्छे से जिया है। दीपक डोब्रियाल और श्रेयस तलपदे ने उनका साथ अच्‍छे से निभाया है। रागिनी खन्ना छोटे से रोल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह का अभिनय भी उम्दा है।

कुल मिलाकर ‘तीन थे भाई’ उन नामों की ख्याति के अनुरूप नहीं है जो इस फिल्म से जुड़े हैं।

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