कुछ मामले अनसुलझे रह जाते हैं। वर्षों बाद कोई फिल्ममेकर खूब अध्ययन कर अपने तरीके से मामले की छानबीन करता है और अपनी फिल्म के जरिये दिखाता है। पश्चिम में इस तरह की कई फिल्में बनी हैं और यह परिपाटी भारत में भी शुरू हो गई है।
पिछले वर्ष नीरज पांडे ने कल्पना का सहारा लेकर ‘ए वेडनेसडे’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें उन्होंने ऐसा केस दिखाया था जो पुलिस हेडक्वार्टर से बाहर नहीं आया।
इस सप्ताह मनीष गुप्ता एक सीरियल किलर की कहानी लेकर आए हैं, जो कि सत्यकथ ा प र आधारित है। थोड़ी हकीकत और थोड़ी कल्पना के जर िय े उन्होंने वर्षों पूर्व हुई घटना को अपनी ताजा फिल्म ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’ में दिखाई है।
कुछ कमियाँ होने के बावजूद ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’ बाँधकर रखती है, खासकर इंटरवल के बाद। फिल्म के अंत पर बहस हो सकती है, लेकिन यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है।
1983 में एक अज्ञात हत्यारे ने लगातार हत्याएँ की और अखबारों में ये खबरें सुर्खियाँ बनीं। मीडिया ने इसे स्टोनमैन का नाम दिया। अज्ञात हत्यारा जब पाँचवीं हत्या करता है तो निलंबित सब-इंस्पेक्टर संजय (केके मेनन) फैसला करता है कि वह हत्यारे को पकड़ेगा ताकि उसे पुलिस फोर्स में वापसी का अवसर मिले।
संजय को अपने सीनियर सातम (विक्रम गोखले) का सहयोग हासिल है, हालाँकि अधिकृत रूप से इस केस को केदार (अरबाज खान) सुलझा रहा है। इन लोगों की तमाम कोशिशों के बावजूद स्टोनमैन लोगों को अपना शिकार बना रहा है।
यह घटना बरसों पुरानी है, लेकिन फिल्म देखते समय एक बार भी ऐसा महसूस नहीं होता कि हम ऐसी फिल्म देख रहे हैं, जिसका वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं है। विषय का निर्वाह अच्छे से किया गया है और कुछ घटनाक्रम बेहतरीन है। दूसरी ओर कुछ दृश्य और घटनाक्रम ऐसे भी हैं, जिनका जवाब नहीं मिलता। फिल्म के अंत से कुछ लोग सहमत होंगे तो कुछ असहमत।
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मनीष गुप्ता ने लेखक और निर्देशक के रूप में अच्छा काम किया है। अभिनय की बात की जाए तो केके मेनन बेहतरीन अभिनेता हैं और यह बात एक बार फिर सिद्ध हो जाती है। अरबाज फिल्म-दर-फिल्म बेहतर हो जाते हैं। विक्रम गोखले, रुखसार और वीरेन्द्र सक्सेना ने भी अपने किरदार अच्छी तरह से निभाए हैं।
कुल मिलाकर ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’ बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को ज्यादा पसंद आएगी।