न घट के न घाट के : घर और घाट की बात, मजे के साथ

अनहद
बैनर : स्टार एंटरटेनमेंट प्रा. लि.
निर्माता : टीपी अग्रवाल
निर्देशक : राहुल अग्रवाल
संगीत : ललित पंडित
कलाकार : राहुल अग्रवाल, परेश रावल, नारायणी शास्त्री, ओम पुरी, रवि किशन, श्वेता साल्वे

राहुल अग्रवाल ने अपने निर्माता पिता के साथ अब तक तीन फिल्में बनाईं जो न तो बहुत सफल रहीं और न ही चर्चित। इस बार वे खुद मुख्य किरदार निभाते हुए आए हैं फिल्म "न घर का ना घाट का" में।

फिल्म ऐसी है जैसे कोई मजाक-मजाक में काम की बात कह दे। काम की बात यह है कि जब गाँव से आदमी शहर में जाए, तो अपने साथ कागजी सबूत ले जाए, वर्ना बड़े शहरों में वो अपना अस्तित्व ही साबित नहीं कर सकता।

फिल्म का नायक देवकीनंदन त्रिपाठी (राहुल अग्रवाल) नौकरी लगने पर गाँव से मुंबई जाता है। वहाँ उसे रहना पड़ता है मदन खचाक (रवि किशन) के साथ। फिर शादी होने पर वो अपनी पत्नी को मुंबई लाता है और पुलिस गलती से उसकी पत्नी को बारबालाओं के साथ पकड़ लेती है। अब नायक को साबित करना है कि जिसे गलती से पकड़ा गया वो उसकी पत्नी ही है, कोई बारबाला नहीं।

इंस्पेक्टर खोटे (परेश रावल) कहता है कि सबूत लाओ। शादी के फोटो में दूल्हे का मुँह सेहरे से ढका है और दुल्हन का घूँघट से। सो घूँघट के रिवाज को भी गरिया दिया गया है। फिल्म एक तरह से मुंबई में आने वाले बिहारियों, उत्तरप्रदेशियों और मध्यप्रदेशियों को संबोधित है। आरोप नहीं लगाए गए मगर यह तो बताया ही गया है कि बिना कागजात के पुलिस सताती है और ये जानते बूझते सताती है कि सामने वाला निर्दोष है।

बहरहाल अपने अनगढ़पन के साथ फिल्म दिलचस्प है और हँसाती है। आर्ट डायरेक्शन एक ही साथ अच्छा भी है और बुरा भी। मगर अच्छा ज्यादा है और बुरा कम। गाँव में संकटाप्रसाद (ओम पुरी) स्टील का महाराष्ट्रीयन लोटा लेकर दिशा मैदान जाता है और जब लौटता है तो हाथ में पीतल का भारी मुरादाबादी लोटा होता है। मगर मुंबई की आधुनिक चाल यानी चौपट किस्म की रहवासी सोसायटियों और सस्ते, छोटे-छोटे फ्लैटों का वो सच्चा चित्र उकेरा है कि मजा ला दिया है।

मुंबई में सामूहिक रहवास पहले चालों में होता था जहाँ सार्वजनिक शौचालय और स्नानागार हुआ करते थे। अब बहुमंजिला बिल्डिंग में जो सस्ते फ्लैट मिलते हैं, उनमें बस बाथरूम घर में होता है, वरना कमरे तो चाल जितने ही छोटे हैं। इन छोटे फ्लैट का जीवन पहली बार यहाँ अपना कुछ रंग लेकर आया है।

रवि किशन का अभिनय सब पर भारी है। यहाँ तक कि ओम पुरी और परेश रावल को भी रवि किशन ने पीछे छोड़ दिया है। इस भोजपुरी एक्टर ने मुंबई के टपोरी का रंग ऐसा पकड़ा है कि देखते ही बनता है। शुरू में उनका किरदार थोड़ा लड़खड़ाया है, मगर बाद में वो सबसे सहज है।

बहुत दिनों बाद नीना गुप्ता नजर आई हैं और उन्होंने भी अपना रोल बढ़िया निभाया है। इन सब में फँस गए राहुल अग्रवाल जिनके चेहरे पर बहुत बार भाव आ ही नहीं पाए हैं। इन सब अच्छे एक्टरों के साथ उनकी मामूली एक्टिंग और अधिक अखरती है। मगर अच्छी बात यह है कि सारे बड़े कलाकारों का काम ज्यादा है इसलिए वो धक जाते हैं। बहुत उम्मीद रखकर न देखी जाए तो फिल्म अच्छी है।

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