प्रिंस :‍ सिर्फ नाम का

समय ताम्रकर
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निर्माता : रेणु तौरानी, कुमार एस. तौरानी
निर्देशक : कूकी वी गुलाटी
संगीत : सचिन गुप्ता
कलाकार : विवेक ओबेरॉय, अरुणा शील्ड्‍स, नंदना सेन, नीरू सिंह, संजय कपूर
यू/ए सर्टिफिकेट * 2 घंटे 15 मिनट
रेटिंग : 1.5/5

नाम रखने से ही कोई प्रिंस नहीं बन जाता। ये बात ‘प्रिंस’ फिल्म पर पूरी तरह लागू होती है। ‘प्रिंस’ नामक यह फिल्म हर मामले में कंगाल है। कुछ हॉलीवुड और कुछ बॉलीवुड फिल्मों को देख शिराज अहमद ने नई कहानी लिख दी, लेकिन ‍स्क्रीनप्ले इतना बचकाना है कि हैरत होती है फिल्म निर्माता पर कि वह इतने पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गया।

अक्सर कम्प्यूटर की मनुष्य के दिमाग से तुलना की जाती है, इसलिए इस फिल्म में दिमाग के साथ कम्प्यूटर जैसा व्यवहार किया गया है। कम्प्यूटर की मेमोरी से डेटा को हटाया जा सकता है और फिर लोड भी कर सकते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा दिमाग के साथ ‘प्रिंस’ में देखने को मिलता है।

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भारत के वैज्ञानिकों ने वर्षों की मेहनत के बाद एक ऐसा चिप तैयार किया है, जिससे मनुष्य के दिमाग से उसकी याददाश्त को इरेज किया जा सकता है। वह मनुष्य भूल जाता है कि वह कौन है। उसके कौन पहचान वाले हैं। वगैरह-वगैरह।

प्रिंस नामक चोर की मेमोरी को भी इरेज कर दिया गया। इसके पहले की उसकी याददाश्त जाती वह चिप को अपने कब्जे में ले एक सिक्के में रखकर कहीं छिपा देता है। सुबह उठने के बाद उसे कुछ याद नहीं रहता क्योंकि कम्प्यूटर की तरह वह रिस्टार्ट हो गया।

प्रिंस के पीछे कुछ बदमाश पड़ जाते हैं और उससे सिक्के के बारे में पूछते हैं जबकि प्रिंस तो अपने बारे में भी नहीं जानता। उसे पता चलता है कि माया नाम की उसकी गर्लफ्रेंड है, लेकिन परेशान तब खड़ी हो जाती है जब तीन-तीन माया उसकी जिंदगी में आ जाती हैं और सभी को उस सिक्के की तलाश है।

प्रिंस न केवल वो सिक्का ढूँढ निकालता है बल्कि अपनी खोई याददाश्त भी हासिल कर लेता है। यह काम करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि फिल्म के राइटर ने हर कदम पर उसकी मदद की है।

फिल्म का कंसेप्ट जरूर नया हो सकता है, लेकिन स्क्रीनप्ले में ढेर सारी खामियाँ हैं। एक तरफ तो आप आधुनिक तकनीक और विज्ञान का इस्तेमाल दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ तर्क-वितर्क को परे रख दिया गया है।

स्क्रीन पर घटनाक्रम को इस तरह पेश किया गया है मानो कार्टून कैरेक्टर देख रहे हो। कई बार प्रिंस स्पाइडरमैन की तरह एक्शन करता है, जबकि उसे आम आदमी दिखाया गया है। मेमोरी इरेज करने के जो दृश्य स्क्रीन पर दिखाए गए हैं वे बहुत ही बचकाने हैं और उन पर यकीन करना मुश्किल है।

फिल्म में एक्शन और स्टाइल को महत्व दिया गया है इसलिए सीन इन बातों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं कि इन्हें फिल्म में जगह मिले। कुछ कैरेक्टर (जैसे राजेश खट्टर का) बेवजह रखे गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है।

निर्देशक कुकी गुलाटी ने सारा ध्यान शॉट टेकिंग और फिल्म की स्टाइल पर दिया है। गन और हॉट गर्ल्स को लेकर स्टाइलिश फिल्म बनाने के चक्कर में वे कंटेंट पर ध्यान देना भूल गए और निर्माता के करोड़ों रुपए फूँक डाले।

फिल्म को आखिरी के 30 मिनटों में खींचा गया है, जब प्रिंस विलेन के जूते में एक डिवाइस लगा देता है ताकि उसे पता चल जाए कि विलेन कहाँ है और फिल्म डर्बन से पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर पर पहुँच जाती है। अंत ऐसा किया गया है ताकि सीक्वल की संभावना बनी रहे।

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विवेक ओबेरॉय का अभिनय निराशाजनक है। लेदर जैकेट पहन वे तरह-तरह के पोज देकर गन चलाते रहे। अरुणा शील्ड्‍स का फिगर अच्छा है, लेकिन एक्टिंग के मामले वे जीरो हैं। नंदना सेन ने पता नहीं ऐसा रोल क्यों स्वीकार कर लिया। नीरू सिंह प्रभावित नहीं करतीं। संगीत के नाम पर केवल एक गीत उम्दा है।

फिल्म के एक्शन सीन उल्लेखनीय हैं। फोटोग्राफी में एरियल शॉट्स का शानदार उपयोग किया गया है। बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है। कुल मिलाकर ‘प्रिंस’ उस सुंदर शरीर की तरह है जिसमें प्राण नहीं है।

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