भूतनाथ : हँसाने और रुलाने वाला भूत

समय ताम्रकर
IFM
निर्माता : बी.आर.चोपड़ा-रवि चोपड़ा
निर्देशक : विवेक शर्मा
संगीत : विशाल शेखर
कलाकार : अमिताभ बच्चन, अमन सिद्दकी, जूही चावला, शाहरुख खान, सतीश शाह, राजपाल यादव, प्रियांशु चटर्जी
रेटिंग : 3/5

भूत-प्रेत की फिल्मों के लिए आवश्यक होती है सुनसान जगह पर एक विशालकाय पुरानी हवेली। ‘भूतनाथ’ में भी इसी तरह की हवेली है, जिसमें एक माँ अपने सात वर्षीय बेटे के साथ रहती है। हवेली में एक भूत भी रहता है।

यहाँ तक तो ‘भूतनाथ’ आम भूत-प्रेत पर बनने वाली फिल्मों की तरह है, लेकिन जो बात इस फिल्म को अन्य फिल्मों से जुदा करती है वो ये कि इस फिल्म का भूत डरावना नहीं है। उसमें मानवीय संवेदनाएँ हैं। उसका भी दिल है, जिसके जरिये वह खुशी और गम को महसूस करता है।

‘भूतनाथ’ की कहानी काल्पनिक, सरल और सीधी है। ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हैं लेकिन इस कहानी को निर्देशक विवेक शर्मा ने परदे पर खूबसूरती के साथ पेश किया है, जिससे एक साधारण कहानी का स्तर ऊँचा उठ गया है।

बंकू (अमन सिद्दकी) के परिवार में पापा (शाहरुख खान) और मम्मी (जूही चावला) हैं। गोवा में उन्हें कंपनी की तरफ से कैलाशनाथ की हवेली रहने को मिलती है। इस हवेली के बारे में कहा जाता है कि इसमें भूत रहता है।

कैलाशनाथ भूत बन चुका है और उसे अपने घर में किसी का रहना पसंद नहीं है। वह बंकू को डराने की कोशिश करता है, लेकिन बंकू पर इसका कोई असर नहीं होता। बंकू उसे भूतनाथ नाम से पुकारने लगता है और दोनों के बीच दोस्ती हो जाती है।

वे साथ में मिलकर खूब मौज-मस्ती करते हैं। भूतनाथ सिर्फ बंकू को दिखाई देता है। एक दिन कैलाशनाथ का बेटा अमेरिका से आकर हवेली को बेचने का प्रयास करता है। यहाँ से कहानी में घुमाव आता है।

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निर्देशक ने छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये कई संदेश दिए हैं। स्पोर्ट्‍स-डे के दिन बंकू खेल के मैदान पर लगातार हारता रहता है। वह चाहता है कि भूतनाथ चमत्कार दिखा दे और वह जीत जाए।

चींटी का उदाहरण देते हुए भूतनाथ उससे कहता है कि चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती, सिर्फ कड़ी मेहनत के जरिये ही सफलता पाई जा सकती है। दूसरों के लिए कुआँ खोदने वाला खुद कुएँ में गिरता है और क्षमा के महत्व को भी फिल्म में दर्शाया गया है।

नई पीढ़ी अपने करियर को हद से ज्यादा महत्व देती है और करियर के कारण अपने माता-पिता को भी उपेक्षित करती है। इस तथ्य को भी ‘भूतनाथ’ में रेखांकित किया गया है।

जब कैलाशनाथ का बेटा करियर की खातिर अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध अमेरिका जाने का निर्णय लेता है तो कैलाशनाश इसे अपनी गलती मानते हैं कि उनकी प‍रवरिश में कोई गलती रह गई है। इस दृश्य के जरिये दो पीढि़यों की सोच के अंतर को दिखाया गया है।

निर्देशक विवेक शर्मा की फिल्म माध्यम पर पकड़ है। फिल्म देखकर महसूस नहीं होता कि यह उनकी पहली‍ फिल्म है। उन्होंने फिल्म इस तरह बनाई है कि दर्शक फिल्म में खो जाता है। फिल्म में पात्र बेहद कम हैं, लेकिन इसके बावजूद एकरसता नहीं आती है।

कुछ कमियाँ भी हैं। मध्यांतर के पहले वाला भाग बेहद मनोरंजक है लेकिन बाद में गंभीरता आ जाती है और इस हिस्से में बच्चों के बजाय वयस्कों का ध्यान रखा गया है। इस भाग में भी हल्के-फुल्के दृश्यों का समावेश किया जाना था।

फिल्म का अंत भी ऐसा नहीं है जो सभी दर्शकों को संतुष्ट कर सके। फिल्म का आख‍िरी घंटा थोड़ा लंबा है। कुछ गीत और दृश्य कम कर इसे छोटा किया जा सकता है। फिल्म का संगीत औसत किस्म का है। जावेद अख्तर ने अर्थपूर्ण गीत लिखे हैं, लेकिन विशाल शेखर स्तरीय धुन नहीं बना सके। ‘छोड़ो भी जाने दो’ फिल्म का श्रेष्ठ गाना है।

अमिताभ बच्चन ने फिल्म का केन्द्रीय पात्र निभाया है और एक बार फिर उन्होंने दिखाया है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। अमन सिद्दकी ने अमिताभ को कड़ी टक्कर दी है। उनका अभिनय आत्मविश्वास से भरा और नैसर्गिक है।

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शाहरुख खान की भूमिका प्रभावशाली तो नहीं है, लेकिन पूरी फिल्म में वे बीच-बीच में आते रहते हैं। जूही चावला ने बड़ी आसानी से अपने किरदार को निभाया। प्रिंस‍िपल बने सतीश शाह बच्चों को खूब हँसाते हैं। राजपाल यादव को ज्यादा अवसर नहीं मिला।

कुल मिलाकर ‘भूतनाथ’ एक साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। वयस्क भी अगर बच्चा बनकर ‍इस फिल्म को देखें तो उन्हें भी यह फिल्म पसंद आ सकती है।
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