ऐसा लगता है कि अपूर्व लाखिया ने ‘मिशन इस्तांबुल’ फिल्म को बनाने की प्रेरणा एक सॉफ्ट ड्रिंक की पंच लाइन ‘डर के आगे जीत है’ से ली है। प्रेरणा लेना बुरी बात नहीं है, लेकिन जो तमाशा उन्होंने रचा है उसे देखकर यकीन नहीं होता कि इस निर्देशक ने ‘शूटआउट एट लोखंडवाला’ बनाई थी।
जिस सॉफ्ट ड्रिंक की पंच लाइन को उन्होंने अपनी फिल्म की पंच लाइन बनाया है, उसे अपूर्व ने अपनी फिल्म के नायकों को पीते हुए भी दिखाया है। चालीस-पचास खतरनाक गुंडे हाथ में चेन-डंडे लिए विवेक-जायद और श्वेता को घेरकर खड़े हैं। तीनों मुस्कराते हुए इस सॉफ्ट ड्रिंक को पीते हैं। इसके बाद उनके अंदर एक ऐसी ऊर्जा का संचार होता है कि वे सबको पीटकर अधमरा कर देते हैं। राष्ट्रपति बुश (इनका किरदार भी है) ‘टर्की’ को देश के बजाय पक्षी समझ लेते हैं।
ऐसे कई किस्से ‘मिशन इस्तांबुल’ में देखने को मिल जाएँगे, जिसमें अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का गंभीर मुद्दा उठाया गया है। फिल्म का चरित्र पहले पन्द्रह मिनट में ही समझ में आ जाता है जब एक नामी रिपोर्टर क्लब में हसीनाओं के साथ नाचते हुए गाना गाने लगता है। माना कि क्या रिपोर्टर डांस नहीं कर सकता? लेकिन इस दृश्य से यह पता चल जाता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की समस्या बॉलीवुड स्टाइल में सुलझाई जाएगी।
विकास सागर (ज़ायद खान) एक पत्रकार है। अपना काम उसे इतना प्यारा है कि वह अपनी जान भी जोखिम में डालने के लिए तैयार रहता है। अपनी पत्नी (श्रेया सरन) को समय न देने की वजह से उसका तलाक हो जाता है। विकास को तुर्की स्थित एक चैनल ‘अल जोहरा’ में नौकरी मिलती है और तीन माह के लिए उसे इस्तांबुल जाना पड़ता है।
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रिज़वान (विवेक ओबेरॉय) तुर्किश फोर्स में कमांडो रह चुका है। वह विकास को बताता है कि जिस चैनल के लिए वह काम कर रहा है उसके तार दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी अबू नज़ीर से जुड़े हुए हैं।
घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि विकास को भी इस बात पर यकीन हो जाता है। विकास और रिजवान मिलकर इस चैनल का असली चेहरा सामने लाने की जिम्मेदारी लेते हैं। चैनल वालों को भी रिज़वान और विकास के मकसद का पता चल जाता है। वे दोनों की हत्या करना चाहते हैं। अंत में जीत नायकों की होती है।
अपूर्व लाखिया ने यह फिल्म व्यावसायिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर बनाई है, इसलिए यह फिल्म लार्जर देन लाइफ है, लेकिन यह फिल्म उस कसौटी पर भी खरी नहीं उतरती। तर्क की उम्मीद तो आजकल का दर्शक करता ही है। फिल्म कई ऐसे सवाल खड़े करती है, जिनका जवाब नहीं मिलता।
विकास की पत्नी उसे इतना चाहती है कि जब उसकी जान खतरे में रहती है तो वह तुर्की पहुँच जाती है, तो फिर वह तलाक क्यों लेती है? विकास जब ‘अल नजीर’ वालों के काले कारनामों का डाटा कम्प्यूटर से चुराता है, तो उसे पासवर्ड कैसे मालूम रहता है? जब पेन ड्राइव में वे (विकास-रिजवान) डाटा कॉपी कर लेते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते, जबकि विकास खुद एक पत्रकार है।
सुपरमैन की तरह रिज़वान कहीं भी टपक पड़ता है, चाहे सड़क हो या विकास का बेडरूम। दो आदमी मिलकर आतंकवादियों की पूरी सेना को धूल चटा देते हैं, यह बात भी हजम नहीं होती। इस फिल्म की एक्शन की काफी चर्चा है, लेकिन एक्शन में कोई खास दम नजर नहीं आता। एक्शन का मतलब हेलिकॉप्टर या कार को विस्फोट से उड़ा देना ही नहीं होता।
फिल्म का संगीत ठीकठाक है, लेकिन गानों के लिए सिचुएशन ठीक से नहीं बनाई गई इसलिए उनका प्रभाव और भी कम हो जाता है। अभिषेक पर फिल्माया गया गाना भी बेदम है।
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ज़ायद खान ने अपना काम पूरी गंभीरता से किया है और इस फिल्म के जरिए उन्हें कुछ और फिल्मों में काम मिल सकता है। नई हेअर स्टाइल में विवेक बेहतर लगे, लेकिन वे पूरी तरह रंग में नहीं दिखाई दिए। फिल्म में श्रेया सरन और श्वेता भारद्वाज नामक दो नायिकाएँ भी हैं, जिन्हें चंद दृश्य मिले हैं। खलनायक के रूप निकितिन धीर का काम उम्दा है। शब्बीर अहलूवालिया मारधाड़ करते रहे और सुनील शेट्टी ने भी छोटी-सी भूमिका निभाई है।
अमर मोहिले ने जो बैकग्राउंड म्यूजिक इस फिल्म के लिए बनाया है, वह रामगोपाल वर्मा की फिल्म में दर्शक सुन चुके हैं।
कुल मिलाकर ‘मिशन इस्तांबुल’ एक असफल मिशन है और दर्शक निराशा के साथ सिनेमाघर छोड़ता है।