कुछ फिल्मों की कहानी अच्छी होने के बावजूद उसके प्रस्तुतिकरण की कमजोरी के कारण वह दर्शकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाती। 'यात्रा' के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।
' यात्रा' फिल्म को रोचक तरीके से फिल्माया गया है, लेकिन फिल्म के लेखक, संपादक और निर्देशक गौतम घोष ने इसे कला फिल्मों की तरह तैयार किया है, जिससे औसत दर्शकों का झुकाव कम होने की सम्भावना है।
फिल्म की कहानी शुरू होती है दशरथ (नाना पाटेकर) से, जो एक लेखक है और एक साहित्य सम्मान समारोह में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली जा रहा है। इस यात्रा के दौरान उसकी मुलाकात एक युवा फिल्म निर्देशक मोहन (नकुल वैद) से होती है। वह दशरथ के लेखन का कायल है। बातचीत के दौरान दोनों पुराने दिनों की यादें ताजा करते हैं।
बातों-ही-बातों में दशरथ के प्रसिद्ध उपन्यास 'जनाजा' की बात छिड़ गई। यह उपन्यास लाजवंती नाम की एक विद्रोही औरत के जीवन को लेकर लिखी थी। लाजवंती (रेखा) जिसकी अपनी सोच थी। सम्मान समारोह से वापस लौटने के बाद दशरथ का मन अनमना-सा था। होटल में भी उसका मन नहीं लग रहा था। उसकी चिंता उसकी पत्नी (दीप्ति नवल) और उसके दोनों बच्चों के बीच भी बढ़ने लगी।
पुरानी बातों ने दशरथ को इतना परेशान कर दिया कि उसे मेंहदी गली जाने को मजबूर होना पड़ा, जहाँ पहले लोग मुजरा सुनते थे। लेकिन समय के साथ सारी चीजें बदल गई थीं। लाजवती लीसा बन गई थी। जो अब नए फिल्मी गानों से लोगों का मनोरंजन करने लगी है। दशरथ को सामने देखकर लाजवंती भौच्चकी रह जाती है।
कागज पर तो ऐसी कहानियाँ अच्छी लगती हैं, लेकिन परदे पर उतरने के साथ ही यह अपना सारा सौंदर्य खो देती है। फिल्मांकन अपना प्रभाव छोड़ नहीं पाई है, क्योंकि फिल्म को आधे-अधूरे तरीके से तैयार किया गया है।
पटकथा की दृष्टि से देखें तो नाना और रेखा के बीच रिश्ते को स्पष्ट नहीं किया गया है। रेखा से नाना की मुलाकात बड़ी ही दर्दनाक स्थिति में होती है, उसका बलात्कार किया जाता है। दोनों के बीच एक ऐसा रिश्ता पनपता है, जिसमें दोनों एक-दूसरे की भावना को बेहतर समझते हैं। पटकथा में इनके रिश्ते को पुष्ट करने के लिए कुछ ऐसे दृश्य भी दिखाए जाने चाहिए। पुरस्कार लेने के बाद नाना जब रेखा के दरवाजे पर पहुँचते हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य की भावना स्पष्ट रूप से नहीं दिखती।
फिल्म का दूसरा घंटा और भी उलझाऊ है। नाना की अचानक मौत हो जाना। रेखा का नाना के मृत शरीर को ऐसी जगह पर छुपाना जहाँ किसी को पता न चले, बड़ी दुविधा पैदा करता है। नाना की पत्नी का उस जगह पर अचानक से पहुँच जाना, और वहीं पर फिल्म का खत्म हो जाना कई सवाल खड़े करता है।
फिल्म का संगीत (खय्याम और गौतम घोष) भी अपना असर नहीं छोड़ पाई है। कई दृश्यों में रंगों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। फिल्म के संवाद काफी अच्छे हैं, जिसे लोग जरूर पसंद करेंगे।
' यात्रा' में नाना पाटेकर का किरदार काफी अलग हटकर है। रेखा के साथ यह परेशानी आई कि उन्होंने इस तरह के किरदार कई बार निभाए हैं, इसलिए उनके लिए अलग करने को कुछ भी नहीं था। लेकिन कुछेक दृश्यों में उन्होंने अपना बेहतरीन देने की कोशिश की है। बाकी कलाकारों के लिए फिल्म में कोई गुंजाइश नहीं थी। नाना पाटेकर की माँ का किरदार काफी बेहतरीन निभाया गया है।
कुल मिलाकर कहा जाए 'यात्रा' एक कमजोर प्रयास है। यह कला फिल्म प्रेमियों के लिए कुछ बेहतर हो सकती है, लेकिन बड़े पैमाने पर दर्शकों के आकर्षित होने के आसार कम ही दिखते हैं।