शैतान : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा
निर्देशक : बिजॉय नाम्बियार
संगीत : प्रशांत पिल्लई
कलाकार : राजीव खंडेलवाल, कल्कि कोचलिन, शिव पंडित, रजित कपूर, रामकुमार यादव
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 7 मिनट
रेटिंग : 3/5

‘शैतान’ देखते समय अक्षय कुमार वाली ‘खिलाड़ी’ की याद आती है जिसकी कहानी ‘शैतान’ से मिलती-जुलती है, इसके बावजूद शैतान देखने में मजा आता है क्योंकि इस कहानी को निर्देशक बिजॉय नाम्बियार ने अलग ही तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। साथ ही उन्होंने पुलिस डिपार्टमेंट खामियों और खूबियों तथा टीनएजर्स और उनके पैरेंट्स के बीच बढ़ती दूरियाँ वाला एंगल भी जोड़ा है, जिससे फिल्म को धार मिल गई है।

एमी, डैश, केसी, जुबिन और तान्या किसी ना किसी वजह से अपने माता-पिता से नाराज है। किसी की अपने पैरेंट्स से इसलिए नहीं बनती क्योंकि उन्होंने दूसरी शादी कर ली तो कोई सिर्फ पैसा कमाने में व्यस्त है।

एमी और उसकी गैंग को प्यार नहीं मिलता इसलिए उनके माँ-बाप उनकी जेबें रुपये से भर देते हैं, जिसकी वजह से ये शराब और ड्रग्स के नशे में हमेशा डूबे रहते हैं। टाइम पास करने के लिए तरह-तरह के जोखिम उठाते हैं जिनमें कार रेस भी शामिल है। ऐसी ही एक कार रेस में वे दो लोगों को कुचल देते हैं और इसके बाद उनकी जिंदगी में यू टर्न आ जाता है।

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अपने अपराध को छिपाने के लिए वे झूठ बोलकर एक नाटक रचते हैं, लेकिन बजाय बचने के पुलिस का फंदा कसता जाता है। परिस्थितियाँ बदलती हैं तो एक-दूसरे पर भरोसा करने वाले ये दोस्त कैसे एक-दूसरे के सामने खड़ा हो जाता है यह निर्देशक बिजॉय ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है।

जब आदमी को अपनी जान बचाना होती है तो वह नैतिकता, यारी-दोस्ती, कसमें-वादे सब कुछ भूलाकर अपने आपको बचाने में लग जाता है। उसका यह शैतान रूप तभी सामने आता है।

पुलिस विभाग की सच्चाई को भी सामने रखा गया है। एक ओर ईमानदार पुलिस ऑफिसर भी हैं जो जान की बाजी लगाकर अपना काम करते हैं तो दूसरी ओर ऐसे ऑफिसर भी हैं जो साढ़े आठ हजार रुपये में ‘नि:स्वार्थ भाव’ से सेवा नहीं कर सकते हैं।

अनुराग कश्यप से प्रभावित निर्देशक बिजॉय नाम्बियार की पकड़ फिल्म पर नजर आती है। हालाँकि बुरका वाला सीन ‘जाने भी दो यारो’ और मेडिकल स्टोर पर चोरी करने वाला सीन ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ की याद दिलाता है।

बिजॉय ने ना केवल अपने कलाकारों से अच्छा काम लिया है, बल्कि कहानी को तेज रफ्तार से दौड़ाया है जिससे फिल्म का रोमांच बढ़ जाता है। रियल लोकेशन पर शूटिंग करने की वजह से फिल्म में वास्तविकता दिखाई देती है।

दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी खींची हुई लगती है, लेकिन इससे फिल्म देखने का मजा खराब नहीं होता है। क्लासिक गीत ‘खोया खोया चाँद’ का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है जो पार्श्व में बजता रहता है और उस वक्त स्क्रीन पर गोलीबारी होती रहती हैं।

बिजॉय का शॉट टेकिंग उम्दा है हालाँकि स्लो मोशन का उन्होंने ज्यादा उपयोग किया है। एमी के अतीत का बार-बार दिखाया जाना जिसमें उसकी माँ उसे बाथ टब में डूबा रही है फिल्म की गति को प्रभावित करता है।

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राजीव खंडेलवाल ‘आमिर’ के बाद एक बार फिर प्रभावित करते हैं। ‘रागिनी एमएमएस’ वाले रामकुमार यादव और कल्कि के अलावा ज्यादातर चेहरे अपरिचित हैं, लेकिन सभी अपने किरदार में डूबे हुए नजर आते हैं। कैमरा वर्क, लाइटिंग और संपादन के मामले में फिल्म सशक्त है। दो-तीन गाने थीम के अनुरुप हैं।

अनूठे प्रस्तुतिकरण और रोमांच का मजा लेना चाहते हैं तो ‘शैतान’ को देखा जा सकता है।

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