सामान मातम का और नाम जश्न

अनहद
बैनर : विशेष फिल्म्स
निर्देशक : रक्षा मिस्त्री, एच.एस. हैदराबादवाला
संगीत : तोशी साबरी, शरीब साबरी
कलाकार : अध्ययन सुमन, अंजना सुखानी, शहाना गोस्वामी, हुमायूँ सईद

सितम यह कि जिस फिल्म का नाम मातम होना चाहिए, उसका नाम "जश्न" है। पूरी फिल्म में हीरो मुँह लटकाए घूमता रहता है, उसकी बहन रोती, पिटती या जलील होती रहती है, उसकी प्रेमिका भी यही सब करती रहती है, बहनोईनुमा एक आदमी डपटता रहता है, दोस्त नसीहतें देते रहते हैं... ऐसी रोती-धोती कहानी का नाम जश्न कैसे हो सकता है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नाम गलतफहमी के चलते रख दिया गया? हो सकता है नाम रखने वालों को जश्न का मतलब न पता हो। अध्ययन सुमन हीरो मटेरियल हैं ही नहीं। उनके पापा का नाम अगर शेखर सुमन नहीं होता, तो उन्हें हीरो का रोल कोई नहीं देता। हाँ, साइड विलेन के रूप में वे करियर शुरू कर सकते थे। भाई-भतीजावाद के चलते न सिर्फ देश को गलत नेता, निकम्मे अफसर और नाकाबिल कर्मचारी मिलते हैं, बल्कि फिल्मों में भी यह भाई-भतीजावाद खासा नुकसानदेह है। जिन लोगों ने ये फिल्म खरीदी उन्हें नुकसान होगा। अंत में सभी को नुकसान होगा क्योंकि इस बेहूदा फिल्म से सभी का नाम जुड़ा है।

नायिका अंजना सुखानी हीरो से बड़ी लगती हैं और हैं भी। कम से कम सात साल बड़ी। नायक की बहन शाहाना गोस्वामी हीरोइन से ज्यादा सुंदर हैं और एक्टिंग भी उनकी सबसे दमदार है। खलनायक बने हुमायू सईद ने पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन दिया है। जब दूसरा एक्सप्रेशन देने की बारी आई तो वे मुँह के बल गिर पड़े और उनके साथ लड़खड़ाती हुई ये फिल्म भी ढह पड़ी।

फिल्म की कहानी में अमीर हीरोइन है और गरीब हीरो है। हीरो निकम्मा है और उसकी बहन एक अमीर आदमी की रखैल है। हीरो को भी यह बात पता है, मगर वो बहन के घर मजे से रहता है, खाता-पीता है। मगर जब जीजानुमा वो शख्स बहन की बेइज्जती करता है, तो हीरो को बुरा लगता है। हीरो को जिस लड़की से प्यार होता है वो इत्तफाक से उसी जीजानुमा शख्स की बहन है। स्थानीय भाषा में ऐसे रिश्ते को "आँटा-साँटा" कहते हैं।

जीजानुमा वो शख्स इस रिश्ते से नाराज होता है। उसे यह सहन नहीं कि उसका आधा-अधूरा साला उसका पूरा जीजा हो जाए। हीरो गायक बनना चाहता है और उसमें प्रतिभा है (केवल कहानीकार के कथनानुसार, वर्ना फिल्म में जो गाने हैं, उन्हें सुनकर तो उसके जीजा की ही बात सही लगती है कि ये निकम्मा है और संगीत में भी किसी काम का नहीं)। बहरहाल हीरो का जीजा उसके रास्ते में अड़ंगे डालता है। फिर एक दिन साले का गाना सुनकर उसका दिल बदल जाता है। जिस गाने को सुनकर थिएटरों के दर्शकों के गुर्दे राहत की माँग करते हुए टॉयलेट की राह याद दिलाते हैं उसी गाने को सुनकर जीजा का दिल मोम-सा पिघल जाता है (सारी खुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ)। बहरहाल फिल्म का सुखपूर्वक अंत होता है और दर्शकों को भी फिल्म का खत्म होना बहुत सुख देता है।

कुछ लोग फालतू चीजों से उपयोगी चीज बनाने की सनक का शिकार रहते हैं। ऐसे में वे कचरे को फेंकने की बजाय सजाकर बैठ जाते हैं। ये फिल्म भी एक ऐसी ही "कलाकृति" है। इसमें सारी चीज़ें फेंक दिए जाने लायक हैं। अध्ययन सुमन से लेकर निर्देशक रक्षा मिस्त्री और हसनैन हैदरबादवाला तक सभी बेकाम हैं। महेश भट्ट का नाम फिल्म पर है मगर अब वो भी किस मतलब के हैं?

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