स्टेनली का डब्बा : फिल्म समीक्षा

कथनी और करनी के फर्क पर तंज

दीपक असीम
बैनर : फॉक्स स्टार स्टूडियो, अमोल गुप्ते सिनेमा प्रा.लि.
निर्माता-निर्देशक : अमोल गुप्ते
संगीत : हितेश सोनिक
कलाकार : अमोल गुप्ते, पार्थो, दिव्या दत्ता, राज जुत्शी, राहुल सिंह

हम ठीक वही करते हैं, जिसे करने के लिए हम बच्चों को मना करते हैं। अमोल गुप्ते ने "स्टेनली का डब्बा" बनाकर हमें एक बार फिर यह बात, बड़े आहिस्ता से याद दिलाई है। इतनी आहिस्तगी से कि यदि आपको ये बात सुननी है तो सुनिए, वर्ना बड़े मजे से फिल्म देखकर निकल जाइए।

इस फिल्म को यदि आमिर खान बनाते, तो संदेश बहुत उभरकर सामने आता। मगर पहली बार निर्देशन कर रहे अमोल गुप्ते का ढंग अलग है। स्टेनली एक ऐसा बच्चा है, जो किसी वजह से अपना टिफिन नहीं ला पाता। उधर पढ़ाने वालों में एक हिन्दी के टीचर वर्माजी (अमोल गुप्ते) भी हैं, जो अपना लंच बॉक्स नहीं लाते।

वर्माजी बच्चों के खाने पर नीयत लगाए रहते हैं। बच्चे अपने टिफिन में से स्टेनली को तो खिलाना चाहते हैं, पर वर्मा सर को नहीं। वर्मा सर इसी बात को लेकर स्टेनली से चिढ़ते हैं। टिफिन के मामले में वर्मा सर स्टेनली को अपना दुश्मन समझते हैं। दूसरे टीचर वर्मा सर को बार-बार टिफिन लाने की हिदायत देते हैं। वर्मा सर उस पर तो ध्यान देते नहीं और लगभग उन्हीं शब्दों में वही हिदायत स्टेनली को पास कर देते हैं।

एक सीन तो खासतौर पर व्यंग्य को तीखा करता है। स्टेनली भूखा है, एक बच्चा उससे कहता है मेरे टिफिन में से शेयर कर ले। स्टेनली पूछता है टिफिन में क्या है। बच्चा कहता है आलू के पराठे। स्टेनली पूछता है किसने बनाए। बच्चा कहता है माँ ने। स्टेनली झिझकते हुए आधा पराठा ले लेता है। तभी वर्मा सर आते हैं। स्टेनली को इस बात के लिए डाँटते हैं कि वो अपना डब्बा क्यों नहीं लाया और भगा देते हैं।

फिर वर्मा सर पूछते हैं टिफिन में क्या है? बच्चा वही जवाब देता है। वर्मा सर फिर पूछते हैं किसने बनाए। बच्चा फिर कहता है माँ ने। तो फिर ला... वर्मा सर बच्चे के टिफिन पर टूट पड़ते हैं? वही के वही संवाद हैं, पर मतलब बदल गया है। दूसरे के टिफिन में से खाने पर बच्चे को डाँट लगाकर भगाया और अब खुद वही कर रहे हैं...। बड़ों की कथनी और करनी के अंतर को बच्चे बहुत साफ तरीके से देखते और महसूसते हैं।

फिल्म का वो हिस्सा सबसे मनोरंजक है, जब बच्चे वर्मा सर से अपना टिफिन छुपाने के लिए तरकीबे भिड़ाते हैं और उन्हें उल्लू बना-बनाकर अपना टिफिन सुरक्षित ठिकानों पर खाते हैं।

सदा भूखे रहने वाले टीचर का रोल अमोल गुप्ते ने बहुत बेहतर किया है। हँसाया भी खूब है। इससे भी बड़ी बात यह है कि बच्चों से बढ़िया अभिनय कराया गया है। हमारी फिल्मों में बच्चों से बस संवाद बुलवा दिए जाते हैं। यहाँ बच्चों ने शानदार अभिनय किया है। फिल्म के कुछ दृश्यों पर माजिद मजीदी के सिनेमा की छाप है।

बतौर निर्देशक यह अमोल गुप्ते की पहली फिल्म है और कुछ खामियाँ भी फिल्म में रह गई हैं। मिसाल के तौर पर अंत बहुत दमदार नहीं बन पाया। गाने भी अमोल को खुद नहीं लिखने थे। पेशेवर गीतकार इस फिल्म के लिए कोई यादगार गीत भी लिख सकता था।

अच्छी बात यह है कि छोटे बच्चे स्टेनली और उसके संसार से पहले सीन के साथ ही जुड़ जाते हैं और खूब मजे लेते हैं। स्कूल के सभी सीन बढ़िया हैं। बच्चे हमारे यहाँ पैदा बहुत होते हैं, पर फिल्म उनके लिए बहुत कम बनती हैं। इसलिए ये फिल्म कुछ अलग महत्व रखती है।

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