हवा हवाई : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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यदि आप सपने देखते हैं और उन्हें पूरे करने की जिद तथा लगन है तो आपको कोई रोक नहीं सकता। इस बात के इर्दगिर्द घूमती है अमोल गुप्ते की फिल्म 'हवा हवाई' की कहानी। अमोल बच्चों को केन्द्रित कर फिल्म बनाते हैं। आमिर खान द्वारा निर्देशित 'तारें जमीं पर' में उनका अहम योगदान था। उनकी पिछली फिल्म 'स्टेनले का डिब्बा' भी काफी सराही गई थी और 'हवा हवाई' भी एक बच्चे की कहानी है जो तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपना सपना पूरा करने में कामयाब होता है।

एक 'अंडरडॉग' की मंजिल तक पहुंचने की कहानी कई बार दिखाई जा चुकी है और इस तरह की फिल्मों की पहली फ्रेम से ही हमें पता चल जाता है कि आखिर में क्या होगा। सारा मामला इस बात पर टिक जाता है कि यह सब होगा कैसे? स्क्रिप्ट में जबरदस्त उतार-चढ़ाव और सही मात्रा में इमोशन्स का होना जरूरी है और यही पर 'हवा हवाई' कमजोर साबित होती है।

गांव में रहने वाले बालक अर्जुन (पार्थो गुप्ते) के पिता इस दुनिया में नहीं रहे और वह अपनी मां, बहन और दादी के साथ शहर चला आता है। एक चाय की दुकान में काम कर वह अपने घर वालों का हाथ बंटाता है। चाय की दुकान के सामने बच्चे अनिकेत भार्गव (साकिब सलीम) से स्केटिंग सीखते हैं। अर्जुन के मन में भी स्केटिंग सीखने की लालसा जागती है, लेकिन उसक पास इतने पैसे नहीं है। उसके चार दोस्त उसकी मदद करते हैं और किस तरह से उसका सपना पूरा करते हैं यह फिल्म का सार है।

अमोल गुप्ते ने फिल्म का लेखन और निर्देशन किया है। कहानी को उन्होंने बहुत ही सिम्पल रखा है और अभावग्रस्त बच्चों मनोदशा को उन्होंने दिखलाया है। लेकिन स्क्रिप्ट में कुछ खामियां हैं, इसलिए ये एक अच्छी फिल्म बनते-बनते रह गई। मसलन गांव से अर्जुन और उसके परिवार का अचानक शहर आ जाने को ठीक से जस्टिफाई नहीं किया गया है। एकलव्य की तरह अर्जुन देख-देख कर स्केटिंग सीखता है। एक जरूरत से ज्यादा ड्रामेटिक सीन में वह पहली बार अनिकेत के सामने स्केटिंग करता है। उसकी स्केटिंग में पता नहीं अनिकेत ऐसा क्या देख लेता है कि अर्जुन में उसे चैम्पियन नजर आता है। जबकि अर्जुन साधारण स्केटिंग करता है और अनिकेत की क्लास में अर्जुन से बेहतर स्केटिंग करने वाले मौजूद रहते हैं। यह फिल्म का टर्निंग पाइंट है, लेकिन स्पष्ट नहीं होने के कारण अर्जुन के प्रति वैसे इमोशन्स पैदा नहीं होते, जैसे होने थे।

फिल्म को कई जगह इमोशनल बनाने की कोशिशें साफ नजर आती हैं। चूंकि इमोशनल सीन बिना सिचुएशन के दिखाए गए हैं, इसलिए असरदायक नहीं हैं। फिल्म में एक और ट्रेक है जिसके तहत अनिकेत का भाई उसे अमरीका ले जाना चाहता है। यह फिल्म में बिलकुल फिट नहीं बैठता और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। फिल्म में हास्य की कमी भी खलती है, जबकि बच्चों के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानी में कॉमेडी की काफी गुंजाइश रहती है।

लेखन के बजाय अमोल गुप्ते का निर्देशन बेहतर है। स्कूल जाने वाले बच्चे और स्कूल जाने से वंचित बच्चों की मनोदशा की उन्होंने तुलना अच्छी की है। खास बात यह है कि बिना संवाद के सिर्फ दृश्यों के माध्यम से ही उन्होंने यह दिखाया है। उन्होंने कलाकारों से अच्छा काम लिया है, खासतौर से बच्चों से। पार्थो गुप्ते बिलकुल नैसर्गिक लगे तो 'गोची' बने अशफाक बिस्मिल्लाह खान, 'भूरा' बने सलमान खान, 'मुरुगन' बने थिरूपति कुश्नापेल्ली और 'अब्दुल' बने मामन मेनन भी कम नहीं रहे। साकिब सलीम, प्रज्ञा यादव और नेहा जोशी का अभिनय भी अच्‍छा है।

हवा हवाई में एक अच्छी फिल्म बनने की संभावनाएं थीं, लेकिन यह उड़ान नहीं भर सकी।

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बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज, अमोल गुप्ते सिनेमा प्रा.लि.
निर्माता : अमोल गुप्ते, दीपा भाटिया
निर्देशक : अमोल गुप्ते
संगीत : हितेश सोनिक
कलाकर : साकिब सलीम, पार्थो गुप्ते, प्रज्ञा यादव, नेहा जोशी, मकरंद देशपांडे, रज्जाक खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 25 सेकंड
रेटिंग : 2.5/5

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