कुछ वर्षों पहले हैंसी क्रोन्ये के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका की टीम भारत आई थी। तब मैच फिक्स हुए थे और इस घोटाले को दिल्ली पुलिस ने उनके फोन टेप कर उजागर किया था। इस सच्ची घटना को आधार बनाकर कुछ कल्पनाएँ की गईं और ‘99’ की कहानी तैयार की गई। इस घटना से सभी परिचित हैं, लेकिन ये सब कैसे हुआ इसकी कल्पना फिल्म के लेखक ने की है। फिल्म के आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि उनकी फिल्म की कहानी में सिर्फ थोड़ी सच्चाई है।
बात 1999 की है। मुंबई में दो दोस्त (कुणाल और सायरस) डुप्लिकेट सिम कॉर्ड बनाते हैं। पुलिस एक दिन उनके घर पहुँच जाती है। पुलिस से बचने के लिए वे एक कार चुरा लेते हैं, जो एक गैंगस्टर (महेश माँजरेकर) की रहती है। दुर्घटना में कार बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है और गैंगस्टर दोनों से हर्जाना माँगता है। दोनों कंगाल रहते हैं और मजबूरी में उन्हें गैंगस्टर के लिए पैसे वसूलने का काम करना पड़ता है।
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राहुल (बोमन ईरानी) से पैसे वसूलने वे दिल्ली जाते हैं, जो क्रिकेट मैचों पर पैसा लगाता है। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि कुणाल और सायरस भी क्रिकेट मैच पर पैसा लगाते हैं और उन्हें वे सबूत मिल जाते हैं, जिससे पता चलता है कि मैचों को फिक्स किया जा रहा है। वे सबूत पुलिस को देते हैं और चुपचाप बच निकलते हैं।
‘99’ फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है इसका पहला हॉफ। यह बेहद धीमा और उबाऊ है। कहानी आगे नहीं बढ़ती और दर्शक के धैर्य की परीक्षा लेती है। स्क्रीन पर जो दृश्य आते हैं वो बोर करते हैं। कहानी से उनका खास ताल्लुक नहीं रहता। शुरुआत से मध्यांतर तक फिल्म को जबरदस्ती खींचा गया है, सिर्फ लंबाई बढ़ाने के लिए। इस जगह को कैसे भरा जाए, यह सोचने में निर्देशक और लेखक नाकामयाब रहे।
फिल्म गति पकड़ती है मध्यांतर के बाद। जब कुछ नए चरित्र आते हैं। कहानी में क्रिकेट और सट्टे का समावेश आता है, लेकिन तब तक फिल्म में रुचि खत्म हो जाती है।
राज निदिमोरू और कृष्णा डीके ने फिल्म का निर्देशन किया है। उनका काम टुकड़ों में अच्छा है। इंटरवल के पहले वे कमजोर साबित हुए, जबकि बाद में उन्होंने दिखाया कि वे भविष्य में अच्छा काम कर सकते हैं। कुणाल और सोहा के रोमांस को वे ठीक से विकसित नहीं कर सके।
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अभिनय की बात की जाए तो बोमन ईरानी सभी पर भारी पड़े। एक सटोरिए की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। कुणाल खेमू और सायरस ठीक-ठाक रहे। सोहा अली खान का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनकी भूमिका महत्वहीन है। विनोद खन्ना और महेश माँजरेकर थके हुए नजर आए। अमित मिस्त्री जब-जब परदे पर आए, दर्शकों को हँसने का अवसर मिला।
फिल्म में गानों की कमी महसूस होती है। संवाद कुछ जगह अच्छे हैं। राजीव रवि ने फिल्म को अच्छे से शूट किया है। फिल्म को ठीक से संपादित किए जाने की जरूरत थी।
कुल मिलाकर ‘99’ से जुड़े हर व्यक्ति का काम कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। फिल्म देखना हो तो इंटरवल के बाद जाइए।