बबली बाउंसर फिल्म समीक्षा: नॉट सो फनी

समय ताम्रकर
मंगलवार, 27 सितम्बर 2022 (13:50 IST)
बबली बाउंसर की हीरोइन बबली बार-बार कहती है कि मैं फनी हूं, बहुत-बहुत फनी हूं, लेकिन अफसोस की फिल्म के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। हार्ड हिटिंग फिल्म बनाए जाने के लिए निर्देशक मधुर भंडारकर पहचाने जाते हैं। 2011 में उन्होंने 'दिल तो बच्चा है जी' नामक हल्की-फुल्की फिल्म में हाथ आजमाया था और अब 'बबली बाउंसर' लेकर आए हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने इनकी राह आसान कर दी जहां अधपकी फिल्म को भी अपनी ख्‍याति की आड़ में खपाया जा सकता है। यदि थिएटर में यह फिल्म रिलीज करना होती तो मधुर शायद ही इसे हाथ लगाते। 

 
फिल्म के तीन लेखक अमित जोशी, आराधना देबनाथ और मधुर भंडारकर ने लेडी बाउंसर के किरदार का आइडिया तो बहुत अच्छा सोचा, लेकिन इस कैरेक्टर पर मजेदार कहानी लिखते उनसे नहीं बनी। हल्की-फुल्की फिल्मों में ठोस कहानी की कमी तब पूरी हो जाती है जब मजेदार और मनोरंजक दृश्य हों, लेकिन यहां पर भी बबली बाउंसर दम से खाली है। 
 
हरियाणा के एक गांव में रहने वाली बबली, पहलवान की बेटी है और दो-चार लड़कों से अकेली ही भिड़ने का माद्दा रखती है। पढ़ाई में उसका मन नहीं है। माता-पिता बबली की शादी करने के मूड में है। इसी बीच बबली का दिल एक पढ़े-लिखे नौजवान पर आ जाता है, जो दिल्ली में शानदार जॉब करता है। 
 
विराज के पीछे बबली दिल्ली पहुंच जाती है और वहां एक पब में लेडी बाउंसर बन जाती है। इस काम में बबली की मदद कुक्कू नाम दोस्त करता है जिससे बबली शादी करने का झूठा वादा करती है। बबली के झूठे वादे का क्या होता है? क्या बबली की शादी विराज से होती है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको लंबी और उबाऊ प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। 
 
स्क्रिप्ट पर मेहनत की कमी पूरी फिल्म में झलकती है। बबली की कहानी आगे ही नहीं बढ़ती। घंटा भर बाद भी आप फिल्म देखना शुरू करेंगे तो कुछ मिस नहीं होगा। दर्शकों का मनोरंजन और हंसाने की खूब कोशिश की गई, लेकिन दृश्य इतने सतही है कि मजाल है जो हंसी आ जाए। 
 
विराज के प्रति बबली की चाहत और उसका रिजेक्शन दर्शकों में बबली के प्रति हमदर्दी पैदा नहीं कर पाती, क्योंकि यह एक-तरफा प्रेम है। दूसरा, साफ-साफ नजर आता है कि बबली और विराज के एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं है और बबली बेवजह विराज के पीछे पड़ी हुई है। 
यदि बबली के प्यार में त्रीवता दर्शाई जाती तो संभव था कि दर्शकों को बबली के लिए सहानुभूति पैदा होती, लेकिन ये काम मधुर नहीं कर सके। 
 
तमन्ना भाटिया का लीड रोल में चयन ही गलत है। वे कहीं से भी बाउंसर नहीं लगती। बार-बार आपको समझाना पड़ता है कि यह लेडी बाउंसर है, लेकिन दिमाग मानता ही नहीं है। उस पर से हरियाणवी अंदाज में बोली जाने वाली हिंदी भी तमन्ना पर सूट नहीं होती।
 
निर्देशक के रूप में मधुर भंडारकर निराश करते हैं। एक अधपकी कहानी और स्क्रिप्ट पर उन्होंने फिल्म बनाने का गलत फैसला लिया और तमन्ना को कास्ट कर दूसरी गलती की। दर्शकों को मनोरंजन से दूर रखा सो अलग। फिल्म में कुछ गाने भी हैं जो फिट नहीं लगते।  
 
तमन्ना भाटिया ने पुरजोर कोशिश की, लेकिन वे बबली तो लगी, बाउंसर नहीं। विराज के रोल में अभिषेक बजाज ने बढ़िया एक्टिंग की है। कुक्कू की भूमिका में साहिल वैद का काम अच्छा है। सौरभ शुक्ला का रोल विस्तार नहीं ले सका। 
 
बबली बाउंसर का उल्लेख तब ही होगा जब मधुर भंडारकर की कमजोर फिल्मों के बारे में बात की जाएगी। 

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