बच्चन पांडे फिल्म समीक्षा : ढाई मिनट की बात को कहने में लगाए ढाई घंटे

समय ताम्रकर
शनिवार, 19 मार्च 2022 (13:29 IST)
बच्चन पांडे का ढाई मिनट का ट्रेलर ढाई घंटे की फिल्म पर भारी है। जितने हाइलाइट सीन थे सब ट्रेलर में ही दिखा दिए गए और मेकर के पास फिल्म में दिखाने के लिए कुछ नहीं बचा। ऐसा लगा कि ट्रेलर को ही खींच कर ढाई घंटे की फिल्म बना दी गई। 
 
बच्चन पांडे जैसी फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई जाती है, लेकिन फिल्म की कॉमेडी, एक्शन और ड्रामे में इतना दम नहीं है कि दर्शकों को बिठाए रखे। दो-चार सीन छोड़ दिए जाए तो 'बच्चन पांडे' को देख कुछ हासिल नहीं होता। 
 
तमिल फिल्म 'जिगरठंडा' का यह रीमेक है जो खुद कोरियन मूवी 'ए डर्टी कार्निवल' का रीमेक थी। इस कहानी को साजिद नाडियाडवाला ने घुमाव-फिराव के साथ लिखा और फरहाद सामजी, स्पर्श खेत्रपाल, ताशा भाम्ब्रा, तुषार हीरानंदानी, ज़ीशान कादरी ने स्क्रीनप्ले लिखा। इतने सारे लोग मिल कर भी एक मनोरंजक फिल्म नहीं लिख सके या यूं कहे ज्यादा रसोइयों ने रसोई बिगाड़ दी। 
डॉन का फिल्म में काम करने वाली कहानी पर कुछ वर्ष पहल सनी देओल की 'भैयाजी सुपरहिट' भी आई थी। यहां भी मामला कुछ ऐसा ही है। मायरा (कृति सेनन) बाघवा के गैंगस्टर बच्चन पांडे (अक्षय कुमार) पर फिल्म बनाना चाहती है। वह उसकी कहानी जानने के लिए उसकी जासूसी करती है। फिर बच्चन उसे अनुमति देता है और वह फिल्म बनाती है। 
 
दो लाइन की कहानी पर सारा दारोमदार स्क्रीनप्ले पर टिका हुआ था जिसमें कई मनोरंजक सीन होने थे और यही पर फिल्म मात खा जाती है। फिल्म पाइंट पर आने में इतना वक्त लेती है कि बोरियत होने लगती है। समझ नहीं आता कि क्यों इतना वक्त लिया जा रहा है। 
 
बच्चन पांडे पर फिल्म बनाने की बात मायरा सीधे जाकर उसे क्यूं नहीं कहती जबकि वह पहली बार में ही मान जाता है। इतना घूम कर मंजिल तक क्यों पहुंचे जब रास्ता ही सीधा था। 
बच्चन पांडे का खौफ पैदा करने वाले और कॉमेडी सीन सपाट हैं। इसका वो असर नहीं पैदा होता जितनी बड़ी बातें की गई हैं। बफेरिया चाचा (संजय मिश्रा), वर्जिन (प्रतीक बब्बर), पेंडुलम (अभिमन्यु सिंह), कांडी (सहर्ष कुमार शुक्ला), गुरुजी भावेस (पंकज त्रिपाठी) जैसे किरदारों का इंट्रोडक्शन तो जोरदार तरीके से दिया गया है और इससे उम्मीद बंधती है कि इन किरदारों को लेकर कुछ मजेदार सीन देखने को मिलेंगे, लेकिन इन्हें सीधे साइडलाइन कर दिया गया। 
 
बच्चन पांडे की अतीत की प्रेम कहानी और लालजी भगत (मोहन आगाशे) के साथ उसके रिश्ते के जरिये ठंडी कढ़ी में उबाल लाने की असफल कोशिश की गई है। न लव स्टोरी अपील करती है और न ही लालजी से रिवेंज वाला एंगल। 
 
फरहाद सामजी का निर्देशन औसत दर्जे का है। उनका प्रस्तुतिकरण दमदार नहीं है और बात कहने में उन्होंने बेवजह जरूरत से ज्यादा समय लिया है। एक निर्देशक के रूप में उन्हें मनोरंजक फिल्म बनाना थी जिस पर वे खरे नहीं उतर पाए जबकि उन्हें बजट, बड़े सितारे और बड़ा कैनवास मिला था। 
 
अक्षय कुमार की एक्टिंग शानदार रही है। अलग से गेटअप में वे जंचे और उन्होंने 'बच्चन पांडे' के किरदार को लेकर बेहतरीन एटीट्यूड रखा। कृति सेनन को भी अच्छा स्कोप मिला जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाते हुए अच्छे अभिनय से प्रभावित किया। अरशद वारसी ने भी अच्छा साथ निभाया। जैकलीन फर्नांडिस में कोई सुधार नहीं है। 
 
संजय मिश्रा और सीमा बिस्वास को ज्यादा फुटेज नहीं मिले। अभिमन्यु सिंह ऐसे कई रोल निभा चुके हैं। पंकज त्रिपाठी ओवर एक्टिंग करते नजर आए। गाने औसत दर्जे के हैं। 
 
सिनेमाटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। कुछ एक्शन सीन अच्छे हैं। कुल मिलाकर बच्चन पांडे न हंसा पाता है और न ही रोमांचित कर पाता है। 

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