भेड़िया फिल्म समीक्षा : वीएफएक्स शानदार, कहानी में नहीं है धार

समय ताम्रकर
Bhediya Movie Review टीवी पर इच्छाधारी नागिन को खूब पसंद किया जाता है और फिल्मों में भी यह फॉर्मूला खूब चला था। राहुल रॉय को लेकर वर्षों पूर्व 'जुनून' बनी थी जिसमें वे शेर बन जाते हैं। लेखक निरेन भट्ट ने वरुण धवन को भेड़िया बना दिया है। आदमी का भेड़िए के रूप में परिवर्तित होने के आइडिए को विस्तार देते हुए वे अच्छी कहानी नहीं लिख पाए। प्रकृति ही प्रगति है, जंगलों को काट कर रोड बनाना, जानवरों से उनका घर छीनना जैसी तमाम बातें उन्होंने कहानी में डाली है, लेकिन बात नहीं बन पाई है। शानदार वीएफएक्स ही कुछ हद तक फिल्म को देखने लायक बनाते हैं। 
 
भास्कर (वरुण धवन) पर पैसा कमाने का भूत सवार है। वह अरुणाचल प्रदेश जाकर वहां के स्थानीय निवासियों को जंगल के बीच से रास्ता बनाने का आइडिया देकर तरक्की के सपने दिखाता है। एक रात भेड़िया उसे काट लेता है और वह जानवरों का इलाज करने वाली डॉक्टर अनिका (कृति सेनन) के पास पहुंचता है। पढ़ा-लिखा भास्कर लगातार जानवरों का इलाज करने वाली डॉक्टर से इलाज कराता है क्योंकि किसी इंसान का इलाज करने वाले डॉक्टर के पास गया तो गांव में अफवाह फैल सकती है कि 'विषाणु' आ गया है। अपनी जान की बाजी लगा कर भला ऐसा कोई करता है क्या? पर भास्कर लगातार उसी से इलाज कराता है। 
 
ट्रेलर में आप देख ही चुके होंगे कि भेड़िए के काटने के बाद भास्कर को दुर्गंध अच्छी लगने लगती है। दूर-दूर की आवाजें उसे सुनाई देती है और वह ताकतवर भी बन जाता है। पूनम की रात को भास्कर भेड़िए में बदल जाता है और शिकार पर निकलता है। इसके बाद कहानी को किस तरह आगे बढ़ाया जाए, ये लेखकों को सूझा नहीं और फिल्म उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने लगती है। अंत में एक चौंकाने वाला ट्विस्ट रखा है जो खास प्रभावी नहीं है। फिल्म के अंत से झलक मिलती है कि इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। 
 
कहानी में हॉरर चुटकी समान है और कॉमेडी के लिए संवादों का सहारा लिया गया है। भास्कर के दोस्त जनार्दन (अभिषेक बनर्जी) के मुंह से कुछ बेहतरीन संवाद सुनने को मिलते हैं, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब दर्शक महसूस करते हैं कि कहानी को आगे बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि वे सिर्फ संवाद सुनने तो आए नहीं है। 

 
भास्कर के भेड़िए के रूप में बदलने वाला ट्रेक भी बहुत देर बाद आता है, लेकिन इसके बाद कुछ खास दर्शकों को हासिल नहीं होता। जंगल बचाने वाले और अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को भारतीय नहीं मानते हुए चीनी समझ कर उनका मजाक बनाने वाले मैसेज को किसी तरह फिट किया गया है। जब फिल्म के किरदार इस बारे में बात करते हैं तो बड़ा अजीब लगता है क्योंकि सिचुएशन और किरदारों की मानसिकता इस तरह की नहीं लगती और ये आउट ऑफ सिंक हो जाते हैं। 
 
निर्देशक अमर कौशिक हॉरर प्लस कॉमेडी के फॉर्मूले का सफल इस्तेमाल 'स्त्री' में कर चुके हैं, लेकिन 'भेड़िया' में कहानी उनका साथ नहीं देती। हालांकि बतौर निर्देशक उनका काम अच्छा है और जितना वे कर सकते थे उतना उन्होंने किया है। 
 
वीएफएक्स टीम और सिनेमाटोग्राफर जिष्नु भट्टाचारजी का काम सराहनीय है। भेड़िए को लेकर जो सीन रचे गए हैं वो कमाल के हैं। थ्रीडी में इनका मजा बढ़ जाता है। जंगल को बहुत ही अच्छे से फिल्माया गया है और इनकी वजह से फिल्म का स्तर ऊंचा महसूस होता है। 
 
वरुण धवन का अभिनय ठीक है, लेकिन उन्हें अपने अभिनय में विविधता लाने की जरूरत है। हर किरदार को वे एक ही तरीके से निभाते हैं। कृति सेनन का रोल बहुत छोटा और उनका हेअर स्टाइल बहुत ही बुरा है। अभिषेक बनर्जी के पास दर्शकों को हंसाने का जिम्मा था जो उन्होंने जिम्मेदारी से निभाया। अजीब सी विग में नजर आए दीपक डोबरियाल का खास उपयोग नहीं हो पाया। पॉलिन कबाक अपनी चमक बिखरने में सफल रहे। संगीत फिल्म की कमजोर कड़ी रहा जबकि बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है।
 
भेड़िया तकनीकी रूप से बढ़िया है, लेकिन ठोस कहानी की कमी खलती है। 

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