Chhaava movie review: पहाड़ी तूफान संभाजी और औरंगजेब की टक्कर, कैसी है छावा, चेक करें रिव्यू

समय ताम्रकर
ऐतिहासिक किरदारों पर फिल्म बनाना हिंदी सिनेमा बनाने वालों को हमेशा पसंद रहा है। सत्तर से लेकर नब्बे के दशक में इस तरह की फिल्मों की संख्या में कमी हुई थी, लेकिन अब फिर इस विषय आधारित फिल्में ‍दिखने लगी हैं। 
 
इतिहास आधारित फिल्म बनाने के ‍लिए बहुत रिसर्च, मेहनत और पैसा लगता है। संजय लीला भंसाली ने ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘पद्मावत’ जैसी ‍फिल्मों के जरिये ग्राफ इतना ऊंचा कर ‍दिया है कि उसे पार करना लक्ष्मण उतेकर जैसे फिल्मकार के बस की बात नहीं है, लेकिन ‘छावा’ के रूप में उन्होंने ऐसी ‍फिल्म तो बना ही दी है जिसे एक बार देखा जा सकता है। 
 
शिवाजी सावंत द्वारा लिखी मराठी पुस्तक ‘छावा’ पर आधारित यह फिल्म छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर फोकस है। यह उस दौर की कहानी है जब मुगलों का शासन बुरहानपुर तक था। शिवाजी का ‍निधन हुआ तो संभाजी महाराज ने कमान हाथ में ली। संभाजी ने बुरहानपुर पर हमला कर मुगलों को पस्त कर ‍दिया और करोड़ों के खजाने पर कब्जा जमा लिया। 
 
मुगल बादशाह औरंगजेब को यह बात घाव कर गई। अपने सिर से उसने ताज उतार दिया और कसम खाई कि तभी पहनूंगा जब संभाजी को पकड़ लूंगा। नौ साल तक विशाल मुगल सेना को लेकर वह संभाजी के पीछे लगा रहा। 
 
इन घटनाओं को पिरोकर लक्ष्मण उतेकर ने अपनी फिल्म में दिखाया है। शिवाजी के बारे में लोगों को जितनी जानकारी है, उतनी संभाजी के बारे में नहीं है। उनकी वीरता, दृढ़ चरित्र और कारनामों को दर्शकों के सामने लाने के उद्देश्य से यह फिल्म बनाई गई है। 


 
स्क्रिप्ट की सबसे बड़ी कमी ये है कि संभाजी के किरदार को गहराई से पेश नहीं किया गया है। उनके बारे में बहुत ज्यादा जानकारी फिल्म से नहीं मिलती। उनकी बहादुरी पर बहुत ज्यादा फोकस रखा गया है, लेकिन उनके जीवन के दूसरे पक्षों के बारे में भी बताया जाना चाहिए था। 
 
ऐतिहासिक फिल्मों में ड्रामा बहुत महत्वपूर्ण होता है, जिसकी कमी ‘छावा’ में खलती है। फिल्म में युद्ध के सीन जरूरत से ज्यादा लंबे रखे गए हैं और ड्रामा को पीछे रखा गया है। ऐसे संवाद और दृश्यों की कमी है जो आपमें जोश भर दें।  
 
फिल्म कहीं-कहीं बहुत ज्यादा लाउड हो गई है। किरदारों को ऐसे चीखते-चिल्लाते देखना अच्छा नहीं लगता। कहीं पर बैकग्राउंड म्यूजिक दृश्यों से बिलकुल मेल नहीं खाता। 
 
इन कमियों के बावजूद यदि फिल्म से दर्शक बंधे रहते हैं तो इसका श्रेय संभाजी के किरदार को जाता है। दर्शक उनके देशप्रेम, वीरता, मुगलों को उखाड़ फेंकने और स्वराज के सपने जैसे गुणों के कारण जकड़े रहते हैं। फिल्म के आखिरी 45 मिनट शानदार हैं और यहां पर कुछ इमोशन जगाने में फिल्म कामयाब होती है। 
 
लक्ष्मण उतेकर बतौर निर्देशक अपनी सीमाओं को तोड़ नहीं पाते। वे फिल्म को भव्य नहीं बना पाए। उन्होंने डिटेलिंग पर यह सोच कर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि दर्शक इतना ज्यादा सोचते नहीं हैं। लाउडनेस शायद उन्होंने इसलिए रखी कि इन दिनों ट्रेंड ही यही चल रहा है। फिल्म का लेवल वे बहुत ऊंचा उठा नहीं पाए, लेकिन बहुत ज्यादा उन्होंने गिरने भी नहीं दिया। 


 
विक्की कौशल को एक सॉलिड किरदार निभाने को मिला है। उनका अभिनय ठीक है, लेकिन वे किरदार को ऊंचाइयों तक नहीं ले जा पाए। कुछ सीन में वे बेहद लाउड नजर आए और इसमें फिल्म डायरेक्टर का दोष ज्यादा है। 
 
अक्षय खन्ना औरंगजेब बने हैं। मेकअप के कारण उन्हें पहचानना मुश्किल है। उन्हें संवाद कम मिले हैं, लेकिन संयमित तरीके से उन्होंने किरदार को निभाया है। 
 
रश्मिका मंदाना के किरदार महारानी येसुबाई को विस्तार नहीं दिया गया है। आशुतोष राणा, दिव्या दत्ता, विनीत कुमार, डायना पेंटी, नील भूपलम मंझे हुए कलाकार हैं, हालांकि इन सबको ज्यादा फुटेज नहीं मिले हैं, लेकिन उन्होंने अपना काम बेहतर तरीके से किया है। 
 
संगीतकार के रूप में एआर रहमान जैसा बड़ा नाम है, लेकिन काम उस स्तर का नहीं है। वीएफएक्स ऊंचे स्तर के नहीं है। 
 
कुल मिला कर छावा न बहुत अच्छी फिल्म है और न बहुत बुरी, कम अपेक्षाओं से देखी जाए तो पसंद आ सकती है। 

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