देवा मूवी रिव्यू: शाहिद कपूर और टेक्नीशियन्स की मेहनत पर स्क्रीनप्ले लिखने वालों ने पानी फेरा

समय ताम्रकर
वर्षों पहले सुभाष घई ने अमिताभ बच्चन को लेकर देवा फिल्म शुरू की थी जो कुछ दिनों में ही बंद हो गई थी। शायद देवा टाइटल उन्हीं से लिया गया है और उनको ‘देवा’ के मेकर्स ने धन्यवाद अदा किया है। अधिकांश अभिनेता पुलिस इंस्पेक्टर बन कर एक्शन अवतार में नजर आ रहे हैं तो शाहिद कपूर ने भी यह इच्छा ‘देवा’ से पूरी कर ली है। देवा (शाहिद कपूर) ऐसा पुलिस ऑफिसर है जो गुंडों को इतना बेरहमी से मारता है कि पत्रकार दिया (पूजा हेगड़े) छाप देती है कि पुलिस वाला है या माफिया? 
 
देवा को एक बदमाश की तलाश है जो उसे हर बार चकमा दे देता है। उसे पुलिस की खबर पहले ही पता चल जाती है। शायद देवा की टीम में से कोई पुलिस वाला उस बदमाश से मिला हुआ है। देवा यह केस सॉल्व कर लेता है, लेकिन  अपराधी का नाम सबको बताने के पहले उसकी याददाश्त चली जाती है। अब वह पहले वाला देवा नहीं रहा, लेकिन उसे फिर से ये केस सॉल्व करने की जिम्मेदारी दी जाती है? नए देवा के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है। 
 
बॉबी-संजय ने फिल्म ‘देवा’ ने जो कहानी लिखी उस पर अच्छी फिल्म बनने का ढेर सारा स्कोप था। कई उतार-चढ़ाव देकर इसे बेहतरीन थ्रिलर बनाया जा सकता था। लेकिन स्क्रीनप्ले लिखने में बॉबी-संजय, अब्बास दलाल, हुसैन दलाल, अर्शद सईद और सुमित अरोरा चूक गए। वे ऐसा स्क्रीनप्ले नहीं लिख सके जो दर्शकों को जकड़ सकें, चौंका सके, रोमांचित कर सके। थ्रिल और एंटरटेनमेंट इसमें से नदारद है और कई सीन लंबे और उबाऊ हैं। साथ ही देवा के किरदार को ठीक से पेश नहीं किया गया है। वह ऐसा क्यों है, इस पर ज्यादा बात नहीं की गई है।  


 
इंटरवल तक फिल्म को बेहद खींचा गया है और सही मायनो में फिल्म इंटरवल के बाद ही शुरू होती है, लेकिन जिस तरह से देवा केस को सुलझाता है उसमें मजा नहीं आता। बिना कठिनाई के वह उस आदमी तक पहुंच जाता है जिसकी उसे तलाश थी। इसमें इसलिए भी मजा नहीं आता कि केस की गुत्थी को सुलझाने में एक्शन कम और बातचीत ज्यादा है। क्लाइमैक्स में कुछ बातों से परदा उठता है जो पूरी तरह से दर्शकों को संतुष्ट नहीं करता। सवालों के अधूरे से जवाब मिलते हैं। देव और दिया का रोमांटिक ट्रेक थोपा हुआ लगता है, उसके लिए अच्छे सीन नहीं रचे गए हैं। 
 
निर्देशक रोशन एंड्रयूस स्क्रीनप्ले राइटर्स से ढंग का काम नहीं ले सके, लेकिन अपने टेक्नीशियनों और एक्टर्स से अच्छा काम लिया है। उन्होंने बहुत अच्छे शॉट लिए हैं और खूब मेहनत भी की है, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले के कारण उनका प्रयास बेकार चला गया है। उन्होंने फिल्म में उदासी भरा माहौल रचा है, जिससे भी दर्शक फिल्म से दूर हो जाते हैं।   
 
अमित रॉय ने फिल्म को बहुत ही शानदार तरीके से फिल्माया है। उनका कलर पैलेट का सिलेक्शन और कैमरा एंगल्स काबिले तारीफ है। एडिटर के रूप में ए. श्रीकर प्रसाद बहुत बड़ा नाम है और उनकी एडिटिंग फिल्म को अलग लुक देती है। फिल्म को वे आधा घंटे छोटा कर सकते थे। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक शानदार है, लेकिन गानों में दम नहीं है। 
 
शाहिद कपूर ने एक ही किरदार को दो तरीके से निभाया है, याददाश्त जाने के पहले और बाद में। पहले वाले को जिस एटीट्यूड के साथ उन्होंने अदा किया है वो बहुत पसंद आता है, लेकिन याददाश्त जाने के बाद जिस तरह से उन्होंने उसका एटीट्यूड और एनर्जी को कम कर दिया है वो फिल्म का नुकसान करता है।
 
पूजा हेगड़े का रोल बिलकुल बेदम रहा, लेकिन जितना भी उन्हें मौका मिला उन्होंने अपना काम अच्छे से किया। पवैल गुलाटी, प्रवेश राणा, कुब्रा सैट, गिरीश कुलकर्णी, उपेन्द्र लिमये अपने-अपने किरदारों में असर छोड़ते हैं। 
 
कुल मिला कर देवा निराश करती है। कमजोर स्क्रीनप्ले और कैरेक्टर डेवलपमेंट फिल्म के अन्य लोगों की मेहनत पर पानी फेर देता है। 

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