गैसलाइट : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
बुधवार, 5 अप्रैल 2023 (12:49 IST)
गैसलाइट जैसी फिल्म यदि थिएटर में रिलीज होती तो पहले शो से ही फ्लॉप हो जाती, इसलिए ओटीटी पर इसे रिलीज कर दिया गया। ओटीटी वालों को भी इस तरह के 'बोरिंग कंटेंट' से दूरी बना कर रखना चाहिए वरना एक दिन दर्शकों का इससे भी मोहभंग हो जाएगा। पवन कृपलानी ने इसे थ्रिलर के रूप में बनाया है जिसमें थोड़ा सा हॉरर एलिमेंट भी मिक्स किया है, लेकिन फिल्म इतनी बोरिंग है कि कई दर्शक इसे बीच में ही बंद कर देंगे। सारा अली खान, चित्रांगदा सिंह, विक्रांत मैसी जैसी शानदार कास्ट भी इस फिल्म को डूबने से नहीं बचा जा सकी। 
 
'गैसलाइट' उस समस्या से उलझती रहती है जो आमतौर पर हॉरर मूवी की स्थाई समस्याएं हैं। वर्षों बीत गए हैं लेकिन हॉरर फिल्म बनाने वाले जहां के तहां ही खड़े हैं। बहुत बड़ी हवेली है, लेकिन नौकरों की संख्या बहुत ही कम। फिर भी हर चीज मैंटेन। हवेली में न जाने क्यों अंधेरा ही छाया रहता है। जब-तब बिजली चली जाती है। करोड़पति लोगों के पास इन्वर्टर या जनरेटर की कोई व्यवस्था नहीं है। जब भी कोई ऐसी बात करना हो जिसे राज रखना हो तो दरवाजे-खिड़की बंद करना भूल जाते हैं। ये सारी समस्याएं 'गैसलाइट' में हैं। 
 
स्क्रीनप्ले बेहद सतही तरीके से लिखा गया है। न चौंकाने वाले उतार-चढ़ाव हैं और न ही मनोरंजन का ध्यान रखा गया है। सभी किरदार हमेशा रहस्यमयी तरीके से बात करते रहते हैं। शायद ऐसा करके ही निर्देशक सस्पेंस क्रिएट करना चाह रहे थे। 
 
कहानी ऐसी लड़की की है जो बरसों बाद अपने घर पर पिता से मिलने लौटी है। उसके पिता घर पर नहीं मिलते। सौतेली मां से मुलाकात होती है। जब घर पर पिता नहीं लौटते तो उस लड़की को अनहोनी की आशंका होती है और उसका शक कई लोगों पर है। 
 
कहानी ठीक-ठाक है, लेकिन इसका प्रस्तुतिकरण बेहद ही सपाट है। स्क्रीनप्ले भी खामियों से भरपूर है। सस्पेंस बनाने की खूब कोशिश की, लेकिन ओटीटी पर क्राइम थ्रिलर देख दर्शकों के दिमाग बहुत तेज चलने लगे हैं और उन्हें जानने में जरा देर नहीं लगती कि परदे के पीछे कौन है। लड़की और पिता के रिश्तों को ठीक से नहीं दर्शाया गया है। अंत को जोरदार बनाने के लिए हलचल पैदा करने की कोशिश की गई है लेकिन वो हास्यास्पद है। 
 
गैसलाइट को इतने अंधेरे में शूट किया गया है कि आंखों को तकलीफ होने लगती है। हर शॉट में जरूरत से ज्यादा अंधेरा रखा गया है भले ही वो स्विमिंग पुल का शॉट हो। गैसलाइट में भी शूट की जाती तो इससे बेहतर रोशनी होती।  
 
पवन कृपलानी निर्देशक के तौर पर निराश करते हैं। ड्रामे को इंटरेस्टिंग नहीं बना पाए। कुछ नया करने की कोशिश की, लेकिन कहानी वर्षों पुरानी चुन ली इससे सारा मामला गड़बड़ा गया। 
 
सारा अली खान पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन लिए नजर आईं। एक्टिंग में कोई विविधता नहीं दिखी। चित्रांगदा सिंह अच्छी एक्ट्रेस हैं, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले और निर्देशन का असर उनकी एक्टिंग पर नजर आया। विक्रांत मैसी कुछ ज्यादा ही प्रयास करते दिखाई दिए। 
 
गैसलाइट में न गैस है और न ही लाइट, दम से खाली है। 

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