गुड्डू रंगीला ‍: फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
फंस गए रे ओबामा (2010) और जॉली एलएलबी (2013) जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले लेखक और निर्देशक सुभाष कपूर 'गुड्डू रंगीला' में अपने बनाए गए स्तर से फिसल कर नीचे आ गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में सुभाष ने फिल्म बनाई है, लेकिन न वे दर्शकों का मनोरंजन कर पाएं और न ही खाप पंचायत वाले मुद्दे को ठीक से उभार पाए। 
बीइंग हनुमान और ऑफ्टर व्हिस्की आई एम रिस्की लिखे जैकेट और टी-शर्ट पहनने वाले गुड्डू (अमित सध) और रंगीला (अरशद वारसी) ममेरे भाई हैं। हरियाणा के गांवों में 'कल रात माता का ईमेल आया है' जैसे गाने गाकर वे लोगों का दिल बहलाते हैं। इसी बहाने वे यह भी पता लगा लेते हैं कि लोगों के घरों में कितना माल है। इसकी जानकारी वे डकैतों को देते हैं और यह भी उनके पैसे कमाने का एक जरिया है। 
 
गुड्डू और रंगीला की ये हरकत पुलिस को पता चल जाती है। थानेदार दस लाख रुपये मांगता है। इसी बीच उन्हें एक लड़की बेबी (अदिति राव हैदरी) को चंडीगढ़ से उठाकर दिल्ली ले जाने का काम मिलता है। दस लाख रुपये में सौदा होता है। बेबी का वे अपहरण कर दिल्ली ले जाने वाले रहते हैं कि उन्हें फोन आता है कि उसे शिमला लेकर जाओ क्योंकि प्लान में तब्दीली हो गई है। 
 
बेबी एक शक्तिशाली नेता और गुंडे बिल्लू (रोनित रॉय) की साली है। बिल्लू से रंगीला का भी कनेक्शन है। कुछ वर्ष पूर्व रंगीला की पत्नी की हत्या बिल्लू ने कर दी थी क्योंकि उसने गैर समाज के लड़के से विवाह किया था। बेबी के बहाने रंगीला को बिल्लू से बदला लेने का मौका मिल जाता है। 
 
गुड्डू और रंगीला यह जानकर हैरान हो जाते हैं कि बेबी ने जानबूझ कर अपना अपहरण करवाया है क्योंकि वह अपने जीजा बिल्लू से अपनी बहन की मौत का बदला लेना चाहती है। वह दस करोड़ रुपये बिल्लू से ऐंठना चाहती है साथ ही उसके पास बिल्लू के गंदे कारनामों की एक सीडी भी है जिसके सहारे वह बिल्लू का राजनीतिक करियर भी बरबाद करना चाहती है। इसके बाद कई उतार-चढ़ाव कहानी में देखने को मिलते हैं।
 
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फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद और निर्देशन सुभाष कपूर का है। फिल्म की कहानी में कोई नई बात नहीं है बावजूद इसके यह ठीक-ठाक है, लेकिन इस कहानी पर आधारित स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। न इसमें मनोरंजन है और न ही लॉजिक। सबसे अहम बात यह है कि बेबी अपना अपहरण क्यों करवाती है जबकि उसके पास बिल्लू के गलत कारनामों की सीडी है। वह इस सीडी के बदले में ही दस करोड़ रुपये बिल्लू से ले सकती थी और सीडी को सार्वजनिक कर सकती थी। इस वजह से अपहरण वाला पूरा ट्रेक कमजोर पड़ जाता है। 
 
रंगीला की पत्नी जीवित रहती है और यह बात रंगीला को पता नहीं चलती तथा रंगीला को बिल्लू के न पहचान पाने वाली बात हजम नहीं होती। ये लेखन की बड़ी कमजोरियां हैं।  
 
स्क्रिप्ट में मनोरंजन का अभाव है। हंसाने के लिए कुछ चुटकुले हैं जिन पर हंसी कम खीज ज्यादा आती है। रोमांस की फिल्म में कोई गुंजाइश नहीं थी, लेकिन बेबी और गुड्डू का रोमांस फिट करने की असफल कोशिश की गई है। बिना सिचुएशन के गाने रखे गए हैं। लड़कियों और प्रेम के खिलाफ खाप पंचायत वाले मुद्दे को भी दिखाया गया है, लेकिन ये ट्रेक प्रभावी नहीं है। ये सिर्फ खलनायक को शक्तिशाली और महामंडित करने के लिए रखा गया है।  
 
फिल्म का पहला आधा घंटा बोरियत से भरा है। अपहरण के बाद जब बेबी के असली इरादे जाहिर होते हैं तो फिल्म चौंकाती है और उत्सुकता पैदा होती है, लेकिन ये उम्मीद जल्दी ही धराशायी हो जाती हैं। इंटरवल के बाद तो फिल्म में रूचि ही खत्म हो जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स किसी बी-ग्रेड की एक्शन मूवी की तरह है। 
 
सुभाष कपूर निर्देशक के रूप में प्रभावित नहीं करते। फिल्म के कैरेक्टर रियल लगते हैं और हरकतें लार्जर देन लाइफ वाली करते हैं। यह तालमेल गड़बड़ा गया है। 
 
जिस अभिनेता अरशद वारसी को हम जानते हैं वो इस फिल्म में नजर नहीं आया। अमित सध निराश करते हैं। अदिति राव हैदरी को जो रोल मिला है उसमें वे फिट नहीं बैठती। रोनित रॉय को सबसे ज्यादा फुटेज मिले हैं और उनका अभिनय अच्छा है। छोटी-मोटी भूमिकाओं में ज्यादातर कलाकारों का काम अच्छा है। 
 
कुल मिलाकर गुड्डू रंगीला रंग नहीं जमा पाई। 
 
गुड्डू रंगीला 
बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि.
निर्माता : संगीता अहिर
निर्देशक : सुभाष कपूर 
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : अरशद वारसी, अमित सध, अदिति राव हैदरी, रॉनित रॉय
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 4 मिनट 46 सेकंड्स 
रेटिंग : 1.5/5 
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