एडल्ट कॉमेडी बनाना भारतीय फिल्मकारों के बस की बात नहीं है। फूहड़ता को ही वे एडल्ट कॉमेडी समझ बैठते हैं और बदले में 'क्या कूल हैं हम 3' जैसी कचरा फिल्में देखने को मिलती हैं। इस फिल्म से जुड़े लोगों से बेहतर तो वे लोग हैं जो व्हाट्स एप के लिए 'नॉटी जोक्स' बनाते हैं जिसमें कुछ क्रिएटिविटी तो होती है।
एक तरफ प्रतिभाशाली लेखकों को मौके नहीं मिलते तो दूसरी ओर मुश्ताक शेख और मिलाप मिलन ज़वेरी जैसे लोगों की लिखी घटिया कहानी पर लोग पैसा लगाने को राजी हो जाते हैं। केवल क्या कूल हैं हम सीरिज की सफलता को भुनाने के लिए तीसरा भाग तैयार कर दिया गया है जिसमें कहानी, निर्देशन, संवाद, अभिनय, गाने सहित सारी चीजें अपने निम्नतम स्तर पर है।
कहानी के नाम पर कुछ भी नहीं है। जो मन में आया लिख दिया। चुटकलों को जोड़-जोड़ कर फिल्म बना दी गई। कोई लॉजिक नहीं क्योंकि हर सीन में डबल मीनिंग संवाद को घुसेड़ने की बात लेखकों ने शायद तय कर ली थी। भले ही वे सीन में फिट बैठते हो या नहीं। शायद वे यह मान कर बैठे थे कि दर्शक यही सब देखने आए हैं। फिल्म मेकिंग के तमाम नियम-कायदों को ताक में रख कर एक घटिया फिल्म परोस दी गई।
जानवरों को भी नहीं छोड़ा गया। एक बूढ़ा हाथ में एक पक्षी लेकर घूमता रहता है जिसे बार-बार 'पोपट' क्यों कहा गया, समझाने की जरूरत नहीं है। एक चूहा फिल्म के हीरो की पेंट में घुस जाता है। एक कुत्ता बूढ़े आदमी को 'ओरल सुख' पहुंचाता है। एक घोड़ा भी है।
तमाम हिट फिल्मों का मजाक बनाया गया है। 'शोले' की पैरोडी 'खोले' बनाकर की गई है। हर किरदार पर 'सेक्स' की धुन सवार रहती है। एक किरदार लाल रंग को देख 'काणा' हो जाता है। इतने सारे तामझाम के बावजूद मजाल है कि आपको हंसी आ जाए। खीज पैदा होती है। समय ठहरा हुआ लगता है। फिल्म खत्म होने का इंतजार बहुत लंबा हो जाता है। बहुत हिम्मत का काम है इस फिल्म को झेलना।
तुषार कपूर और आफताब शिवदासानी अब इस तरह की फूहड़ फिल्मों के खास चेहरे हो गए हैं क्योंकि दूसरी फिल्मों में उनके लिए जगह नहीं बची है।
'क्या कूल हैं हम 3' देखने आए दर्शक शायद यही सोच रहे थे कि 'क्या FOOL हैं हम' जो इस फिल्म को देखने सिनेमाघर चले आए।