मोनिका ओ माय डार्लिंग फिल्म समीक्षा: दिलचस्प कहानी और बढ़िया स्टारकास्ट

समय ताम्रकर
सोमवार, 14 नवंबर 2022 (19:09 IST)
1971 में रिलीज हुई फिल्म कारवां के एक गाने की लाइन है 'मोनिका ओ माय डार्लिंग' जिसको निर्देशक वासन बाला ने अपनी फिल्म का टाइटल बनाया है। यह गीत फड़कता हुआ है और एक किस्म का थ्रिल इसमें है। चूंकि 'मोनिका ओ माय डार्लिंग' एक थ्रिलर है इसलिए इस मूवी पर यह टाइटल सूट भी होता है। 
 
कारवां से थोड़ी कहानी भी मिलती-जुलती है 'मोनिका ओ माय डार्लिंग' की। वासन बाला ने न केवल यह गाना बार-बार उपयोग में लाया है बल्कि फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक, कलर स्कीम, शॉट टेकिंग भी सत्तर और अस्सी के दशक की थ्रिलर मूवी की तरह रखी है। अपने ट्रीटमेंट के कारण वासन बाला दर्शकों को फिल्म से जोड़े रखते हैं। 
 
यूनिकॉर्न कंपनी की मोनिका (हुमा कुरैशी) अपने हुस्न के जाल में फंसा कर जयंत (राजकुमार राव), निशिकांत (सिकंदर खेर) और अरविंद (भगवंत पेरुमल) की जिंदगी हराम कर देती है। तीनों मिल कर मोनिका को ठिकाने की लगाने की सोचते हैं। क्या ये इतना आसान है? मामला पुलिस तक पहुंचता है और एसीपी विजयाशांति नायडू (राधिका आप्टे) जांच करने आ धमकती है। मर्डर पर मर्डर सवाल को और टेढ़ा बना देते हैं। 
 
मर्डर किसने किया? क्यों किया? जयंत और उसके साथी कैसे फंसे? कैसे वे इससे छुटकारा पाएंगे? पुलिस से कैसे बचेंगे? इन सवालों के इर्दगिर्द मोनिका ओ माय डार्लिंग की कहानी घूमती है और कुछ बेहद मनोरंजक दृश्य देखने को मिलते हैं। 
 
मर्डर मिस्ट्री को ह्यूमर का तड़का लगाया है, जिससे एक अलग किस्म का रस पैदा होता है। साथ ही निर्देशक वासन बाला ने उतार-चढ़ाव के साथ कहानी को पेश कर मामले को दिलचस्प बना दिया है। 
 
कहानी के साथ-साथ किरदारों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। छोटे शहर का जयंत कम समय में बहुत कुछ पाना चाहता है और सारे दांव-पेंच आजमाता है। मोनिका पुरुषों की लम्पटता का फायदा उठाती है। निशिकांत की अपनी खुन्नस है। विजयाशांति नायडू बहुत ही बेफिक्री के साथ मामले की जांच करती है। इनके अलावा जयंत की गर्लफ्रेंड, जयंत का दोस्त और जयंत की गर्लफ्रेंड के पिता की भी अहम भूमिका है। 
 
जहां एक ओर सस्पेंस फिल्म में दिलचस्पी पैदा करता है तो वहीं सिचुएशनल कॉमेडी हंसाती रहती है। हालांकि कहानी में थोड़ी कमियां हैं, जैसे पुलिस की जांच पर सवाल उठाए जा सकते हैं। क्राइम थ्रिलर देख-देख अब दर्शकों का दिमाग पुलिस से तेज दौड़ता है और 'मोनिका ओ माय डार्लिंग' में पुलिस की जांच की धीमी रफ्तार सवालों के घेरे में आ जाती है। कही-कही फिल्म झोल भी खाती है, लेकिन ये बातें बहुत ज्यादा रूकावट नहीं पैदा करती। 
 
फिल्म में कुछ सीन बढ़िया हैं, जैसे राजकुमार राव का बिल्डिंग पर लटक कर उस कागज को पाने की कोशिश करना जिस पर उसने एक गलत काम के लिए साइन किया है। राधिका आप्टे का पहला सीन जबरदस्त है। चूंकि वे खूबसूरत पुलिस वाली हैं इसलिए बड़े ही फनी तरीके से बोलती हैं कि अब मैं खूबसूरत हूं तो क्या करूं? काश राधिका का रोल लंबा होता। योगेश चांदेकर और वासन बाला के संवाद चुटीले हैं। 
 
वासन बाला ने अपनी मेकिंग के जरिये पुरानी हिंदी थ्रिलर फिल्मों की याद दिलाई है। उनका प्रस्तुतिकरण उम्दा है और कुछ प्रयोग अच्छे लगते हैं। 
 
फिल्म की शानदार स्टारकास्ट एक बड़ा प्लस पाइंट है। राजकुमार राव ने जयंत की आगे बढ़ने की ललक को अभिनय के जरिये सामने लाकर रख दिया है। साथ ही उनका किरदार लगातार रंग बदलता है जिसे राजकुमार बड़ी ही सहजता से निभाते हैं। हुमा कुरैशी अपने किरदार में डूबी लगीं। राधिका आप्टे ने बहुत ही मजे लेकर अपना किरदार निभाया है। सिकंदर खेर की खामोशी डराती है। भगवंती पेरुमल अपने अभिनय से हंसाते हैं। फिल्म का गीत 'ये एक जिंदगी' बार-बार सुनना अच्छा लगता है और इसका इस्तेमाल भी सूझबूझ के साथ किया गया है। टेक्नीकली फिल्म मजबूत है।
 
'मोनिका ओ माय डार्लिंग' को दिलचस्प कहानी और बढ़िया स्टारकास्ट के कारण देखा जा सकता है। 

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