रमन राघव 2.0 : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
'रमन राघव 2.0' सीरियल किलर रमन राघव पर आधारित न होकर उससे प्रेरित है जिसने 60 के दशक में मुंबई में 41 लोगों की हत्याएं की थी। अनुराग कश्यप ने रमन राघव के किरदार को 60 के दशक से उठाकर आज के दौर में फिट किया है।
 
अनुराग की फिल्मों में जीवन का अंधेरा पक्ष देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों के किरदार वहशी किस्म के होते हैं। शायद इसीलिए उन्हें रमन राघव ने आकर्षित किया। फिल्म में रमन राघव की मानसिकता देखने को मिलती है। 
 
रमन कभी रमन्ना बन जाता तो कभी सिंधी दलवाई। हिसाब में कमजोर है। उसका दुनिया देखने का नजरिया आम लोग से अलग है। आम लोगों की निगाह में वह मानसिक रूप से बीमार है। वह भगवान से बातें करता है। जब वह चलता है तब उसे शतरंज के सफेद और काले खाने सड़क पर दिखाई देते। वह सिर्फ काले पर चलता है। सफेद पर पैर रख दिया तो आउट। यदि काले पर कोई आदमी बैठा या लेटा हो तो वह उसकी हत्या करने में जरा भी संकोच नहीं करता। अजीब सी उलझन उसके मन में चलती रहती है। जानवरों जैसी प्रवृत्ति है कि बहन का भी बलात्कार करता है और उसके परिवार को भी मौत के घाट उतार देता है।  
 
पुलिस ऑफिसर राघव उसके पीछे पड़ा है। यह भी एक तरह से रमन ही है जो पुलिस यूनिफॉर्म पहने हुए है। रमन और राघव एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगते हैं। राघव ड्रग्स लेता है। जिंदगी में इमोशन का कोई स्थान नहीं है। उसके लिए महिलाओं से संबंध सिर्फ जिस्मानी भूख मिटाने के लिए है। रास्ते में आने वाले शख्स की हत्या करने में उसे भी संकोच नहीं है। 
 
फिल्म की शुरुआत में इन दो किरदारों में बहुत अंतर दिखाई देता है, लेकिन समय के साथ-साथ दोनों के बीच अंतर करने वाली रेखा पतली होती जाती है, फिर धुंधला जाती है और अंत में रमन और राघव एक हो जाते हैं।
इस फिल्म को वासन बाला और अनुराग कश्यप ने लिखा है। वास्त‍विक रमन के साथ काल्पनिक राघव का किरदार गढ़ा गया है। दोनों को तुलनात्मक तरीके से पेश किया गया है। रमन ज्यादा क्रूर है या राघव कहना कठिन है। रमन हत्या करते समय न धर्म की आड़ लेता है न दंगों की। उसे हत्या करने में एक मजा मिलता है। दूसरी ओर राघव का मिजाज भी पाशविक किस्म का है, लेकिन वह जिन लोगों को मारता है उसमें उसका स्वार्थ है। 
 
इस छोटी-सी बात को विस्तार देना आसान बात नहीं है और लेखन के मामले में फिल्म कई जगह कमजोर पड़ती है। कुछ ऐसी गलतियां भी हैं जो खलल पैदा करती है। चोर-पुलिस के खेल में थ्रिल पैदा करने के बजाय दोनों किरदारों पर जरूरत से ज्यादा समय खर्च किया गया है। सिनेमैटिक लिबर्टिज़ थोड़ी ज्यादा हो गई हैं, लेकिन लेखन की कमी की पूर्ति अनुराग कश्यप अपने निर्देशन के जरिये पूरा करने की कोशिश करते हैं। हालांकि अभी भी वे क्वेंटिन टेरेंटिनो की छाया से निकल नहीं पाए हैं। 
 
अनुराग ने ऐसे कई शॉट्स दिखाए हैं जो दर्शकों को रमन की मानसिकता से परिचित करा देता है। इसमें लोकेशन्स का विशेष महत्व है। तंग बस्तियों की गलियां, खस्ताहाल बिल्डिंग्स, कीचड़ और सड़क पर पसरी गंदगी के बीच घूमते रमन की यह दिमाग की भी गंदगी है।  
 
फिल्म का फर्स्ट हाफ तेजी से चलता है, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म खींची हुई लगती है। खासतौर पर जब फिल्म रमन से राघव पर शिफ्ट हो जाती है क्योंकि विकी कौशल अच्छे अभिनेता होने के बावजूद नवाजुद्दीन सिद्दीकी के स्तर तक नहीं पहुंच पाते। यहां पर 15 से 20 मिनट फिल्म को छोटी किया जा सकता था, जिससे फिल्म में कसाव आ जाता। मास्टर स्ट्रोक फिल्म के अंत में खेला गया है जब राघव की गिरफ्त में रमन आ जाता है और रमन-राघव के एक होने के बारे में बताता है।
 
फिल्म में हिंसा का अतिरेक है और निर्देशक ने यह काम दर्शकों की कल्पना पर छोड़ा है। दरवाजे की आड़ से तो कभी परछाई के सहारे रमन को हत्या करते हुए दिखाया है। फर्श पर पसरा खून और पांच दिन पुरानी लाश देख आप दहल सकते हैं। रमन और राघव की क्रूर और निष्ठुर सोच फिल्म में दिखाई हिंसा से ज्यादा हिंसक है। 
 
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फिल्म में कहानी के नाम पर दिखाने को ज्यादा नहीं था और ऐसे वक्त में कलाकारों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। यही पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकार अपना कमाल दिखाते हैं। हत्यारे की भूमिका में न तो वे चीखे-चिल्लाए और न ही ड्रामेटिक तरीके से उन्होंने संवाद बोले। होशो-हवास कायम रख उन्होंने हत्याएं की। अपने किरदार के बेतरतीब स्वभाव को उन्होंने अपना हथियार बनाया। वे कब क्या कर बैठे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है और इसके जरिये ही उन्होंने खौफ पैदा किया है। उनकी संवाद अदायगी गौर करने के काबिल है। कभी वे बुदबुदाते हैं तो कभी स्वर ऊंचा-नीचा होता रहता है। 
 
विकी कौशल अपने बाहरी आवरण से अपने आपको क्रूर दिखाने की कोशिश करते नजर आए और उनका अभिनय औसत रहा। सेकंड हाफ में जब फिल्म का बोझ उनके कंधों पर आता है तो फिल्म डगमगाने लगती है। ।
 
राम सम्पत ने बैकग्राउंड म्युजिक का इस्तेमाल होशियारी के साथ किया गया है। कुछ दृश्यों में खामोशी ही आपको डराती है। आरती बजाज का सम्पादन प्रभावी है, हालांकि उन्हें फिल्म को छोटा करने की इजाजत शायद निर्देशक ने नहीं दी होगी। 
 
साइकोलॉजिकल थ्रिलर 'रमन राघव 2.0' परफेक्ट फिल्म न होने के बावजूद ज्यादातर समय आपको यह बांधकर रखती है। 
 
बैनर : फैंटम प्रोडक्शन, रिलायंस एंटरटेनमेंट
निर्माता : मधु मंटेना, अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने
निर्देशक : अनुराग कश्यप
संगीत : राम सम्पत
कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विकी कौशल, शोभिता धुलिपाला
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट 23 सेकंड 
रेटिंग : 3/5 

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