शिवाय : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
अच्छी कहानी पर खराब फिल्म कैसे बनाई जाती है, इसका उदाहरण है 'शिवाय'। ‍इस कहानी पर एक सफल और अच्छी फिल्म बनने के कई तत्व मौजूद थे, लेकिन स्क्रीनप्ले ने पानी फेर दिया। 'शिवाय' देखने के बाद हमें दो-तीन एक्शन सीक्वेंसेस और बेहतरीन सिनेमाटोग्राफी ही याद रहती है। 

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शिवाय (अजय देवगन) एक पर्वतारोही है। विदेशी पर्वतारोहियों का एक दल आता है‍ जिनकी मदद शिवाय करता है। इसी दल की ओल्गा (एरिका कार) से शिवाय की दोस्ती हो जाती है। दोनों आकर्षित होकर सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। ओल्गा गर्भवती हो जाती है। वह बच्चे को गिराकर अपने देश बुल्गारिया लौट जाना चाहती है, लेकिन शिवाय चाहता है कि ओल्गा बच्चे को जन्म दे। ओल्गा इसी शर्त पर बच्चे को जन्म देने के लिए राजी होती है कि वह अपने बच्चे को कभी देखेगी भी नहीं और बच्चे की देखभाल की सारी जिम्मेदारी शिवाय की होगी। 
बच्चे को जन्म देने के बाद ओल्गा अपने देश चली जाती है। शिवाय अपनी बेटी का नाम गौरा रखता है और कहता है कि उसकी मां की मृत्यु हो गई है। गौरा गूंगी है। आठ वर्ष की होने पर गौरा को पता चल जाता है कि उसकी मां जीवित है। वह मां से मिलने की जिद करती है। आखिरकार शिवाय उसे लेकर बुल्गारिया जाता है। दोनों ओल्गा को ढूंढते हैं। इसी बीच गौरा का अपहरण हो जाता है। शिवाय को पता चलता है कि बुल्गारिया में 72 घंटे के अंदर या तो बच्चे को वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है या उसके अंग बेच दिए जाते हैं। वहाब (वीरदास) और अनुष्का (साएशा) की मदद से शिवाय किस तरह अपनी बेटी को बचाता है यह फिल्म का सार है। 
 
संदीप श्रीवास्तव ने फिल्म ने कहानी तो अच्छी लिखी, लेकिन स्क्रीनप्ले ने सारा मजा किरकिरा कर दिया। शिवाय की बेटी को गूंगी दिखाने का कोई औचित्य ही नजर नहीं आया। ओल्गा का किरदार भी ठीक से नहीं लिखा गया है। पहले तो वह अपने बच्चे का चेहरा भी नहीं देखती और बाद में बेटी के लिए उसका बेसब्र होना जंचता नहीं है। स्क्रीनप्ले में इमोशन पैदा करने की गुंजाइश थी, जिसका उपयोग ही नहीं किया गया। पिछले वर्ष प्रदर्शित हुई 'बजरंगी भाईजान' की भी कहानी भी कुछ इसी तरह की थी, लेकिन उसमें इमोशन और मनोरंजन का पूरा ध्यान रखा गया था। 'शिवाय' इस मामले ‍में बहुत पिछड़ गई। फिल्म का मूड उदासी वाला है। 
 
शिवाय और गौरा के बुल्गारिया पहुंचने तक भी फिल्म ठीक रहती है, लेकिन इसके बाद बिखर जाती है। जबकि गौरा को 72 घंटे में ढूंढने वाला मिशन रोमांच से भरपूर होना था। इस मिशन में गति महसूस नहीं होती क्योंकि फिल्म को बहुत लंबा खींचा गया है। अंत में तो 'शिवाय' बहुत ज्यादा फिल्मी हो गई जब शिवाय और गौरी पर सैकड़ों गोलियां चलाई जाती है, लेकिन एक भी उन्हें नहीं लगती। पीछा करने वाले और एक्शन सीक्वेंसेस इतने लंबे हो गए हैं कि बोरियत होने लगती है। 
 
अजय देवगन का निर्देशन औसत दर्जे का है। उन्होंने हर दृश्य में अपने आपको रखा है। हर कारनामा वे करते हैं। सपोर्टिंग कास्ट को उभरने का अवसर ही उन्होंने नहीं दिया है। इस वजह से सौरभ शुक्ला, गिरीश कर्नाड, वीर दास की भूमिकाएं आधी-अधूरी लगती हैं। अपने फिल्माए शॉट्स पर अजय इतने मोहित हो गए कि उन्हें हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, इससे फिल्म अनावश्यक रूप से लम्बी हो गई। कायदे से तो यह फिल्म दो घंटे की होनी थी। 
 
फिल्म के स्टंट और एक्शन सीक्वेंस तारीफ के योग्य हैं, हालांकि लंबे होने के कारण ये उतने असरदार नहीं बन पाए। असीम बजाज की सिनेमाटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है।  
 
अभिनय की बात की जाए तो अजय देवगन ने अपने किरदार को कुछ ज्यादा ही गंभीरता दे दी है। हालांकि स्क्रिप्ट से उन्हें पर्याप्त सहयोग नहीं मिला, लेकिन जितना हो सका उन्होंने किया। एक्शन सीक्वेंस में वे बेहतर रहे। एरिका कार का अभिनय औसत दर्जे का रहा। गौरा बनी एबिगेल एम्स दर्शकों का दिल नहीं जीत पाई और इसमें दोष निर्देशक का है। साएशा सहगल ने इस फिल्म से अपनी शुरुआत की, लेकिन उन्हें ज्यादा अवसर नहीं मिल पाए।  
 
फिल्म का टाइटल ट्रेक छोड़ दिया जाए तो मिथुन का संगीत निराशाजनक है। उनका बैकग्राउंड म्युजिक तो 'बी' ग्रेड फिल्मों जैसा है। 
 
कुल मिलाकर 'शिवाय' एक लंबी और थका देने वाली फिल्म है, जिसमें मनोरंजन के तत्व भी कम हैं। 
 
बैनर : अजय देवगन फिल्म्स 
निर्देशक : अजय देवगन 
संगीत : मिथुन 
कलाकार : अजय देवगन, सायेशा, वीर दास, एरिका कार,  एबिगेल एम्स, गिरीश कर्नाड, सौरभ शुक्ला
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 52 मिनट 38 सेकंड
रेटिंग : 2/5 
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