क्या सुपर कूल हैं हम ‍: फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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बैनर : एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड
निर्माता : एकता कपूर
निर्देशक : सचिन यार्डी
संगीत : सचिन-जिगर, शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार : तुषार कपूर, रितेश देशमुख, नेहा शर्मा, सारा जेन डायस, अनुपम खेर, चंकी पांडे, रोहित शेट्टी (मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 16 मिनट 30 सेकंड
रेटिंग : 1/5

क्या सुपर कूल हैं हम बनाने वालों का कहना है कि उनकी फिल्म एडल्ट कॉमेडी है, लेकिन एडल्ट कॉमेडी का मतलब केवल डबल मीनिंग डायलॉग ही नहीं होता है। एक एडल्ट थीम वाली कहानी भी जरूरी है जिस पर ऐसा स्क्रीनप्ले लिखा जाए जो वयस्क मन को गुदगुदाए।

' क्या सुपर कूल हैं' देख ऐसा लगता है कि इससे जुड़े लोगों को यही नहीं पता है कि एडल्ट कॉमेडी क्या होती है। एसएमएस में चलने वाले थके हुए जोक्स, द्विअर्थी संवाद और फूहड़ता को कॉमेडी के नाम पर पेश ‍किया गया है। फिल्म देखते समय सचिन यार्डी नामक शख्स की सोच पर हैरत होती है। उन्होंने अपने मानसिक दिवालियेपन के ढेर सारे सबूत दिए हैं।

अनुपम खेर वाला ट्रेक तो इतना घटिया है कि उसे देख सी-ग्रेड फिल्म बनाने वाले भी गर्व महसूस कर सकते हैं। अनुपम खेर को थ्री जी नामक बाबा एक कुतिया देकर बोलता है तुम्हारी स्वर्गवासी मां लौट आई है। अनुपम उसे मां बोलते हुए बड़े प्यार से रखते हैं।

उस कुतिया से एक कुत्ता संबंध बना लेता है तो बाबा अनुपम से कहते हैं कि यह तुम्हारा बाप है। करोड़पति अनुपम उस कुत्ते को भी पाल लेता है और उनकी शादी कराते हैं। इसमें प्रसंग में जो संवाद बोले गए हैं वो स्तरहीन हैं।

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अनुपम खेर इतने गरीब तो नहीं हुए हैं कि उन्हें पेट भरने के लिए ऐसे रोल करना पड़ रहे हैं। वे एक्टिंग सिखाते हैं और यह फिल्म उन्हें अपने स्टुडेंट्स को जरूर दिखाना चाहिए ये बताने के लिए कि एक्टिंग कभी भी ऐसे नहीं करना चाहिए।

सचिन यार्डी फिल्म के निर्देशक होने के साथ लेखक भी हैं और निर्देशक पर लेखक हावी है। पहले उन्होंने ऐसे शब्द चुनें जिनके आधार पर डबल मीनिंग डायलॉग लिखे जा सके। फिर डायलॉग लिखकर उन्होंने दृश्य बनाए और इनकी एसेम्बलिंग कर फिल्म तैयार की गई। कहानी का फिल्म में कोई मतलब ही नहीं है, सिर्फ बेहूदा हरकतों और घटिया संवादों के सहारे फिल्म पूरी की गई है।

तुतलाने वालों का, काले रंग वालों का तथा कई नामों का मजाक उड़ाया गया है, जैसे फखरू, फखरी, पेंटी, मेरी रोज़ मार्ले, लेले। इनका कई बार इस्तेमाल किया गया है जिससे ऐसा लगता है कि लेखक को कुछ नया नहीं सूझ रहा है।

निर्देशक के रूप में सचिन का काम सिर्फ अपनी लिखी कहानी को फिल्माना था। उनके डायरेक्शन में इमेजिनेशन नहीं है। न गानों के लिए अच्छी सिचुएशन बनाई गई है और न ही दृश्यों के बीच कोई लिंक है। इमोशन डालने की कोशिश फिजूल नजर आती है। इंटरवल के बाद जरूर कुछ ऐसे सीन हैं जिन्हें देख हंसा जा सकता है वरना ज्यादातर दृश्यों को देख ऐसा लगता है कि हंसाने की फिजूल कोशिश की जा रही है।

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तुषार कपूर का अभिनय अच्छे से बुरे के बीच झूलता रहता है। रितेश देशमुख बुझे-बुझे से रहे। नेहा शर्मा ने ओवर एक्टिंग की। सारा जेन डियास आत्मविश्वास से भरपूर नजर आईं। चंकी पांडे और अनुपम खेर ने एक्टिंग के नाम पर जोकरनुमा हरकतें कीं। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर लगती है।

डबल मीनिंग डायलॉग या फूहड़ता आटे में नमक बराबर हो तो अच्छी लगती है, लेकिन जब पूरा ही नमक हो तो स्वाद बेमजा हो जाता है। यदि आप पूरी‍ फिल्म में मारो, लेले, चाट, पेंटी, देदे.... जैसे ढेर सारे शब्द सुनना पसंद करते हैं तो ही यह फिल्म आपको मजा दे सकती है।

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