रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्मित फिल्म ‘गो’ के एक दृश्य में राजपाल यादव गुंडों को धमकाते हुए कहते हैं कि भाग जाओ यहाँ से। गुंडे नहीं भागते। फिर वह दूसरी बार कहते हैं ‘मैं दूसरी बार वार्निंग दे रहा हूँ भाग जाओ यहाँ से।‘ गुंडे फिर भी नहीं भागते, लेकिन सिनेमाघर से कुछ दर्शक जरूर भाग जाते हैं।
एक निर्माता के रूप में रामगोपाल वर्मा की बुद्धि पर तरस आता है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने इतनी घटिया कहानी पर फिल्म बनाने की सोची। मौका देने में अगर वे इतने उदार हैं तो फिल्म बनाने की हसरत पालने वाले हर इनसान को रामू से मिलना चाहिए।
ऐसा लगता है कि नौसिखियों की टीम ने यह फिल्म बनाई है। घिसी-पिटी कहानी, बकवास पटकथा और घटिया निर्देशन। कौन कितना घटिया काम करता है, इसका मुकाबला चल रहा है। पूरी फिल्म दृश्यों की असेम्बलिंग लगती है। कहीं से भी कोई-सा भी दृश्य टपक पड़ता है।
कहानी है दो प्रेमियों की। उनके माता-पिता शादी के खिलाफ रहते हैं। क्यों रहते हैं यह नहीं बताया गया। दोनों मुंबई से गोवा के लिए भाग निकलते हैं। साथ में एक कहानी और चलती रहती है। इसमें उपमुख्यमंत्री की हत्या मुख्यमंत्री ने करवा दी है।
दोनों कहानी के सूत्र आपस में जुड़ जाते हैं। परिस्थितिवश उपमुख्यमंत्री की हत्या का सबूत इन प्रेमियों के हाथ लग जाता है और उन्हें पता ही नहीं रहता। सबूत मिटाने के लिए मुख्यमंत्री के गुंडों के अलावा पुलिस भी इनके पीछे लग जाती है। इन सबसे वे कैसे बचते हैं, ये बचकाने तरीके से बताया गया है।
एक छोटा-सा बैग लेकर भागे ये प्रेमी हर दृश्य में नए कपड़ों में नजर आते हैं। पता नहीं उस बैग में इतने सारे कपड़े कैसे आ जाते हैं? बैग भी मि. इंडिया से कम नहीं है। कभी उनके साथ रहता है तो कभी गायब हो जाता है।
गौतम नामक नए अभिनेता ने इस फिल्म के जरिये अपना कॅरियर शुरू किया है। उसके पास न तो हीरो बनने की शक्ल है और न ही दमदार अभिनय। निशा कोठारी के लिए अभिनय के मायने हैं आँखें मटकाना, तरह-तरह की शक्ल बनाना और कम कपड़े पहनना। केके मेनन ने पता नहीं क्यों यह फिल्म की? राजपाल यादव जरूर थोड़ा हँसाते हैं।
फिल्म के निर्देशक के रूप में मनीष श्रीवास्तव का नाम दिया गया है। पता नहीं इस नाम का आदमी भी है या फिर बिना निर्देशक के काम चलाया गया है। फिल्म बिना ड्राइवर के कार जैसी चलती है, जो कहीं भी घुस जाती है।
गानों से कैंटीन वाले का भला होता है, क्योंकि दर्शक गाना आते ही बाहर कुछ खाने चला जाता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में जबरदस्त अँधेरा है। तकनीकी रूप से फिल्म फिसड्डी है। ‘गो’ देखते समय थिएटर से बाहर भागने की इच्छा होती है।