जेल : जेल का खेल

समय ताम्रकर
IFM
बैनर : परसेप्ट पिक्चर कंपनी, भंडारकर एंटरटेनमेंट
निर्देशक : मधुर भंडारकर
संगीत : शरीब साबरी, तोशी साबरी, शमीर टंडन
कलाकार : नील नितिन मुकेश, मुग्धा गोडसे, मनोज बाजपेयी, आर्य बब्बर, चेतन पंडित, राहुल सिंह
यू/ए * 16 रील * दो घंटे 13 मिनट
रेटिंग : 2.5/5

जेल से ज्यादा लोग परिचित नहीं है। फिल्मों के माध्यम से ही लोगों ने जेल देखा है, जो बनावटी ज्यादा होता है। इसलिए मधुर भंडारकर की ‘जेल’ से बहुत आशाएँ थीं क्योंकि उनकी फिल्म वास्तविकता के निकट होती है, लेकिन ‘जेल’ उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती।

मधुर भंडारकर हार्ड हिटिंग फिल्मों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन ‘जेल’ में मधुर के आक्रामक तेवर गायब हैं। बजाय जेल के उन्होंने फिल्म के मुख्य किरदार पराग दीक्षित को ज्यादा अहमियत दी, इससे फिल्म उतनी प्रभावी नहीं बन पाई।

पराग दीक्षित (नील नितिन मुकेश) अच्छी-भली जिंदगी जी रहा है। बढि़या नौकरी और खूबसूरत गर्लफ्रेंड मानसी (मुग्धा गोडसे) की वजह से उसकी जिंदगी मजे से कट रही है। अपने रूममेट के कारण पराग ड्रग्स के मामले में फँस जाता है और उसे जेल हो जाती है।

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जेल की दुनिया से परिचित होने के बाद पराग सहम जाता है। जानवरों की तरह कैदियों को रखा जाता है। अपराधियों के बीच वह अपने आपको अजनबी पाता है। धीरे-धीरे वह ‘जेल’ की गतिविधियों से परिचित होता है किस तरह जेल के अंदर से कुछ कैदी अपना कामकाज चलाते हैं, दादागिरी करते हैं, कूपन चलाते हैं, पुलिस से साँठगाँठ करते हैं।

पराग का मामला अदालत में चलता है, लेकिन अदालत के कार्य करने की धीमी गति उसे तोड़कर रख देती है। आत्महत्या वह करना चाहता है, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसकी माँ और गर्लफ्रेंड वकील की फीस भरकर आर्थिक परेशानियों में घिर जाते हैं। लंबी मानसिक यंत्रणा भोगने के बाद करीब दो-ढाई वर्ष बाद उसे न्याय मिलता है।

‘जेल’ की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखी गई इस कहानी में कोई खास बात नहीं है। कई फिल्मों में बेगुनाहों को जेल की यंत्रणा भोगते दिखाया जा चुका है। साथ ही न्याय प्रणाली की धीमी गति भी नई बात नहीं है।

जेल का वास्तविक चित्रण इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट होना था। मधुर ने इसे दिखाने की कोशिश तो की है, लेकिन सॉफ्टनेस के साथ। इससे फिल्म का पैनापन कम हो गया।

साथ ही ‘जेल’ देखने के बाद ऐसा लगता है कि सारे अपराधी बेगुनाह हैं और जेल में रखकर उनके साथ अन्याय किया जा रहा है। पराग को मासूम दिखाने के चक्कर में मधुर ने दूसरे किरदारों को भी दिल का अच्छा दिखाया है। जरूरी नहीं है कि जेल में सजा भोग रहे सभी अपराधियों के दिल नेक हो। कुछ किरदार फिल्मी हो गए हैं।

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पोल-खोल अभियान में जुटे मधुर फॉर्मूले का शिकार हो गए हैं। हर बार वे जिंदगी से वे एक खास वर्ग या सिस्टम को चुनते हैं और फॉर्मूले की तरह उनका चित्रण करते हैं।

नील नितिन मुकेश का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। कई बार वे लाउड हो जाते हैं। उन्हें अपने अभिनय पर नियंत्रण रखना चाहिए। मनोज बाजपेयी ने अरसे बाद प्रभावी अभिनय किया है। आर्य बब्बर को इस फिल्म के बाद गंभीरता से लिया जाने लगेगा। चेतन पंडित, मुग्धा गोडसे सहित अन्य कलाकारों का अभिनय अच्छा है। सयाली भगत पर फिल्माया गया गीत अधूरे मन से रखा गया है।

कुल मिलाकर ‘जेल’ से मधुर का वो टच गायब है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं।

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