तेरे बिन लादेन : प्यारा-प्यारा पंजाबी लादेन

दीपक असीम
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निर्माता : आरती शेट्टी, पूजा शेट्टी देओरा
निर्देशक : अभिषेक शर्मा
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : अली ज़ाफर, प्रद्मुम्नसिंह, बैरी जॉन, चिन्मय मंडलेकर, चिराग वोरा, पियूष मिश्रा, सीमा भार्गव, सुगंधा गर्ग

बस जरा-सी कसर रह गई वरना ये फिल्म "खोसला का घोसला" और "भेजा फ्राय" की अगली कड़ी होती। स्क्रिप्ट की छोटी सी मिस्टेक...। मगर इसे हँसी-खुशी देखा जा सकता है। फुल टाइम पास... फुल हँसी-मजाक और व्यंग्य...।

ये फिल्म बताती है कि स्टैंडअप कॉमेडी के कितने ही शो क्यों न आ जाएँ, सिचुएशनल कॉमेडी की बात ही और है। हास्य में यदि व्यंग्य भी आ मिले, तो तलवार दोधारी हो जाती है। इसे लिखा और निर्देशित किया है अभिषेक शर्मा ने मगर उर्दू हास्य की खासियत इसमें है। उर्दू हास्य में हास्य प्रधान होता है और व्यंग्य का छौंक होता है। हिन्दी में व्यंग्य ज्यादा होता है और हास्य गरीब की खीर में कंजूसी से पड़े ड्राय फ्रूट जितना पाया जाता है। गलती से कहीं कोई टुकड़ा आ भी जाए तो पता चलता है कि तेल चढ़ा है।

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फिल्म के हीरो यूँ तो अली जफर हैं, पर बाजी मार ले गए हैं लादेन बनने वाले प्रद्मुम्नसिंह। मासूम लादेन, पंजाबी बोलने वाला लादेन, लड़की के छू भर देने से पिघल जाने वाला लादेन...। खुद ओसामा बिन लादेन यदि देख ले तो उसे इस लादेन से प्यार हो जाए और वो भी बंदूक छोड़कर फिल्म के ओसामा उर्फ नूरा की तरह मुर्गियाँ पालने लगे। हाँ...फिल्म में ओसामा का हमशक्ल मुर्गी पालने वाला नूरा है, जो सिर्फ पंजाबी बोलता है। इस पंजाबी नूरा से अरबी बुलवाने की जो कोशिश की गई है, वो खूब हास्य पैदा करती है।

फिल्म को पाकिस्तान में यदि बैन किया गया है, तो इसलिए नहीं कि ओसामा से कोई डर है, बल्कि इसलिए कि इसमें पाकिस्तान को अमेरिका का मूर्ख पिछलग्गू बताया गया है।

एक अमेरिकी अफसर पाकिस्तानी खुफिया अधिकारी के साथ अपमानजनक रवैए में बात करता है (यही सच भी है)। पाकिस्तानी खुफिया तंत्र का भी मखौल फिल्म में उड़ाया गया है और अमेरिका को भी नहीं बख्शा गया है।

पाकिस्तानी अधिकारी अमेरिकी अफसर से कहता है कि ओसामा अफगानिस्तान में नहीं है, आप नाहक वहाँ बमबारी करा रहे हैं। अमेरिकी अफसर जवाब देता है कि हमें पता है, मगर हम अपने युद्ध बजट का क्या करें?

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इस फिल्म में पाकिस्तान के सेट रचे गए हैं, मगर उन सेट को देखकर लगता है कि हाय... ये क्या जगह है, जहाँ हम नहीं गए। हम लोगों के लिए सात समंदर पार के देश उतना बड़ा अजूबा नहीं हैं, जितने ये करीब के देश... अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन...। वाघा बॉर्डर तक जो लोग जाते हैं, वो फेंसिंग के उस पार की जमीन को ऐसे देखते हैं, मानो वो जमीन कुछ अलग तासीर रखती हो, जबकि वो इसी जमीन से जुड़ी हुई होती है। हमारे ताल्लुकात हमारे पड़ोसियों से अच्छे नहीं हैं और नेहरूजी का प्रसिद्ध बयान है कि हम अपना पड़ोस नहीं चुन सकते...।

खैर... फिल्म बताती है कि पाकिस्तान में नफीस उर्दू नहीं अधिकतर जगह पंजाबी या पंजाबी टोन की उर्दू बोली जाती है। बकाया जगह सिंधी और सीमावर्ती इलाकों की कुछ और ज़ुबान। "तेरे बिन लादेन" और भी कई पहलू से नयापन लिए है।

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