नहीं होगी क्लीन बोल्ड- 'हैटट्रिक'

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भारतीय सिनेमा आजकल मल्टीप्लेक्सों तक सिमटकर रह गया है। अधिकतर फिल्मों की शुरुआत और अंत अब एक जैसे होने लगे हैं। इनमें ज्यादातर फिल्मों का हश्र भी एक जैसा ही होने लगा है।

2007 की बात करें तो 'सलाम-ए-इश्क' और 'हनीमून ट्रैवल्स-प्रायवेट लि.' में कलाकारों के साथ-साथ ढेर सारी कहानियाँ एक साथ चलती हैं। ठीक उसी ढर्रे पर चलते हुए निर्देशक मिलन लुथरिया 'हैटट्रिक' में तीन कहानियाँ एक साथ लेकर चले हैं। हाँ, इन्होंने एक बदलाव जरूर किया है कि फिल्म को क्रिकेट के ईद-गिर्द बाँधने की कोशिश की है।

फिल्म के कई दृश्यों में मिलन लुथरिया का प्रयास काफी अच्छा रहा है, लेकिन फिल्म इंटरवल के पहले तक जितनी सधी हुई लगती है, इंटरवल के बाद उतनी ही बिखर जाती है।

फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार है- डॉ सत्यजीत चौहान (नाना पाटेकर) जिसे दुनिया की हर चीज से प्यार है, क्रिकेट को छोड़कर। डेविड अब्राहम (डैनी डैन्जोन्पा) एक बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी है और क्रिकेट ही उसकी दुनिया है। एक बार डेविड बीमार पड़ता है और सरकारी अस्पताल में भर्ती होने पर उसकी मुलाकात डॉ सत्यजीत से होती है।

इधर लंदन में हेमू पटेल (परेश रावल), जिसने गलत तरीके से लंदन की नागरिकता हासिल की है। अब काफी समय तक लंदन में रहते हुए उसे यहाँ की जिंदगी रास आने लगी है। वह दिन-रात इन्हीं ख्यालों में खोया रहता है कि किसी तरह उसे यहाँ की नागरिकता मिल जाए।

सैबी (कुणाल कपूर) जो क्रिकेट के पीछे दीवाना है, उसे अपनी खूबसूरत बीवी करिश्मा (रिमी सेन) से ज्यादा टेलीविजन पर क्रिकेट देखना ज्यादा अच्छा लगता है। इनकी जिंदगी में परेशानी तब शुरू होती है, जब करिश्मा धोनी की ओर आकर्षित होने लगती है।

नाम के अनुसार ही फिल्म में तीन कहानियाँ एक साथ चलती हैं। फिल्म के पहले भाग में नाना-डैनी की नोक-झोंक, परेश रावल की चाहत और कुणाल-रिमी का हॉट एण्ड कोल्ड रिश्ता एक सीध में चलता नजर आता है। पर इंटरवल के बाद फिल्म की पकड़ कमजोर होने लगती है। कई चीजें ऐसी हैं, जिसे पचा पाना मुश्किल है। नाना का वर्ल्ड कप मैच आयोजित करवाना उसी का एक हिस्सा है। इन सारी चीजों में पटकथा ही दोषी नजर आती है। यूँ तो परेश रावल का किरदार काफी बेहतरीन है, लेकिन कमजोर पटकथा की वजह से वह अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाई है। जैसे उस अँग्रेज ऑफीसर का अचानक से ह्दय परिवर्तित होना हजम नहीं हो पाता। कुणाल कपूर का पहनावा भी काफी बचकाना नजर आता है।

मिलन लुथरिया के निर्देशन को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन कलम अपनी ताकत दिखाने में नाकाम रही है। प्रीतम का संगीत अच्छा बन पड़ा है। 'विकेट बचा...' ही एकमात्र ऐसा गाना है, जो दर्शकों के जुबान पर चढ़ने लायक है। फिल्मांकन (निर्मल जानी) में काफी प्रवाहशीलता है, जो दृश्यों को काफी हद तक बाँधने की कोशिश करती है।

कलाकारों के अभिनय की बात करें तो नाना पाटेकर ने हमेशा की ही तरह अपने किरदार में जान डाल दी है। डैनी अपनी पिछली फिल्मों से इतर बिल्कुल अलग किरदार में नजर आए हैं। उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी है। परेश रावल कॉमेडी के बाद एक गम्भीर किरदार में दिखे और उन्होंने एक बार फिर अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया है। कुणाल कपूर और रिमी सेन का अभिनय भी अच्छा रहा। नाना पटेकर की पत्नी का अभिनय कर रहीं प्रतीक्षा लोनकर के लिए कोई खास गुंजाइश नहीं थी।

कुल मिलाकर 'हैटट्रिक' एक औसत फिल्म कही जा सकती है, जो कि बॉक्स-ऑफिस पर भले ही सेंचुरी न मार पाए, लेकिन फिल्म को क्लीन बोल्ड भी नहीं किया जा सकता।

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