न्यूयॉर्क : आतंक और अविश्वास का हाईटेक ड्रामा

समय ताम्रकर
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निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : कबीर खान
कहानी : आदित्य चोपड़ा
पटकथा-संवाद-गीत : संदीप श्रीवास्तव
संगीत : प्रीतम
कलाकार : जॉन अब्राहम, कैटरीना कैफ, नील नितिन मुकेश, इरफान
यू/ए सर्टिफिकेट
रेटिंग : 3/5


9 /11 की घटना के बाद लोगों में अविश्वास बढ़ा है। अमेरिकन संघीय एजेंसी एफबीआई ने डिटेंड के तहत अमेरिका में बसे 1200 एशियाई लोगों को अमानवीय यातनाएँ दीं। 1000 को सबूतों के अभाव में कुछ वर्षों बाद छोड़ा गया। इनमें से अधिकांश की आज भी दिमागी हालत खराब है। इन संदर्भों को लेकर निर्देशक कबीर खान ने शक, अविश्वास और अत्याचार का हाईटेक ड्रामा फिल्म न्यूयॉर्क के जरिये प्रस्तुत किया है।

सैम (जॉन अब्राहम) एशियाई मूल का अमेरिकी नागरिक है। उसे अमेरिकन होने पर गर्व है। माया (कैटरीना कैफ) कॉलेज में उसके साथ पढ़ती है। उमर (नील नितिन मुकेश) दिल्ली से आगे की पढ़ाई करने के लिए न्यूयॉर्क जाता है। ये तीनों युवा कॉलेज लाइफ का पूरा मजा लेते हैं। अचानक 9/11 की घटना घटती है और उसके बाद तीनों ‍की जिंदगी में बदलाव आ जाता है।

माया को उमर चाहने लगता है, लेकिन जब उसे पता चलता है कि माया, सैम को पसंद करती है तो वह उनकी जिंदगी से चला जाता है। सैम एफबीआई की चपेट में आ जाता है और उसे कई तरह की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। बाद में उसे रिहा किया जाता है।

कहानी वर्ष 2009 में आती है। एफबीआई एजेंट रोशन (इरफान खान) उमर को पकड़ लेता है। उसे शक है कि सैम आतंकवादियों से मिला हुआ है। वह उमर को सैम के घर भेजता है ताकि उसके खिलाफ सबूत जुटाए जा सकें। क्या सैम आतंकवादी है? क्या वह अपने दोस्ती की जासूसी करेगा? जैसे प्रश्नों का सामना उमर को करना पड़ता है।

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आदित्य चोपड़ा ने कहानी में रोमांस और थ्रिल के जरिये अपनी बात कही है। आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता पूरी फिल्म में बनी रहती है। निर्देशक कबीर खान ने आदित्य की कहानी के जरिये बहुत ही उम्दा विषय उठाया है। इस विषय पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी, लेकिन कमर्शियल फॉर्मेट में प्रस्तुत करने की वजह से कहीं-कहीं विषय की गंभीरता कम हो गई है। ‘काबुल एक्सप्रेस’ को डॉक्यूमेंट्री कहा गया था, शायद इसीलिए कबीर ने फिल्म को मनोरंजक बनाने की कोशिश की है। बड़ा बजट भी इसका एक कारण हो सकता है।

इस फिल्म के जरिये उन्होंने बताया है कि आम मुसलमान अमेरिकी नागरिक के खिलाफ नहीं है। उसका गुस्सा एफबीआई या ऐसी सरकारी संस्थाओं के खिलाफ है, जिन्होंने जाँच की आड़ लेकर बेगुनाह लोगों को सताया है।

एफबीआई एजेंट रोशन जो कि मुसलमान है, के संवादों (ये अमेरिका में ही हो सकता है कि एक मुसलमान के बच्चे को बेसबॉल की टीम में शामिल किया जाए और उसे हीरो की तरह कंधों पर उठाया जाए/ अब मुसलमानों को आगे आकर अपनी खोई इज्जत को कायम करना होगा) के जरिये उन्होंने अमेरिका की तारीफ भी की है।

दूसरे हॉफ में फिल्म पर से कबीर का नियंत्रण छूट सा गया। कई गैरजरूरी दृश्यों ने फिल्म की लंबाई को बेवजह बढ़ाया। 37 वर्षीय जॉन को विद्यार्थी के रूप में देखना अटपटा लगता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी को भी उसी अंदाज में दिखाया गया है, जैसा कि भारतीय कॉलेजों को फिल्मों में दिखाया जाता है। फिल्म में अंग्रेजी के कई संवाद हैं, लेकिन हिंदी उप-शीर्षक दिए गए हैं, ताकि अँग्रेजी नहीं जानने वालों को तकलीफ न हो।

अभिनय के लिहाज से जॉन अब्राहम की यह अब तक की बेहतरीन फिल्म कही जा सकती है। सैम का किरदार उन्होंने उम्दा तरीके से निभाया है। दो फिल्म पुराने नील नितिन मुकेश भी जॉन से किसी मामले में कम नहीं रहे। कैटरीना से जब वे सात साल बाद मिलते हैं और कैटरीना उन्हें बताती है कि उन्होंने जॉन से शादी नहीं की है तब उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं।

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कैटरीना कैफ ने साबित किया है कि वे अभिनय भी कर सकती हैंं, लेकिन पुरानी फिल्मों की तुलना में वे कम खूबसूरत लगीं। इरफान (खान सरनेम उन्होंने हटा लिया है) एक नैसर्गिक अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपने अभिनय का कमाल दिखाया है।

असीम मिश्रा की फोटोग्राफी ऊँचे दर्जे की है। जूलियस पैकिअम का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है। संगीतकार प्रीतम फॉर्म में नजर आए। है जुनून, मेरे संग और तूने जो कहा था लोकप्रिय हो चुके हैं।

कुल मिलाकर ‘न्यूयॉर्क’ देखना बुरा सौदा नहीं है।
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