मस्ती एक्सप्रेस : फिल्म समीक्षा

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बैनर : ब्रेनवेव प्रोडक्शन
निर्माता : विक्रम प्रधान, सिद्धांत अशधीर
निर्देशक : विक्रम प्रधान
कलाकार : राजपाल यादव, दिव्या दत्ता, जॉनी लीवर, मनोज जोशी, रज्जाक खान, विजय पाटकर
रेटिंग : 2.5/5

कम बजट की फिल्मों में कहानी और स्क्रीनप्ले ही सबसे बड़ा स्टार होती हैं क्योंकि उसके बल पर ही दर्शकों को आकर्षित किया जा सकता है और ‘मस्ती एक्सप्रेस’ में भी ऐसी ही कोशिश की गई है। यह कोशिश कामयाब हो जाती अगर स्क्रीनप्ले पर थोड़ी और मेहनत की जाती।

फिल्म एक अच्छे नोट के साथ शुरू होती है कि कम हैसियत वाले लोगों के बच्चों को ऊँचे दर्जे के स्कूल में एडमिशन क्यों नहीं दिया जाता है। वे फीस भरने में सक्षम है, लेकिन उनकी शिक्षा, नौकरी या व्यापार को मद्देनजर रख ही इसका निर्धारण किया जाता है कि उनके बच्चे को स्कूल में लिया जाए या नहीं। यदि किसी बच्चे का पिता रिक्शा चालक है तो उसे एडमिशन नहीं दिया जाता भले ही बच्चे में प्रतिभा हो।

इस थीम को यदि अच्छे से डेव्हलप किया जाता तो एक उम्दा फिल्म बनने की संभावना ‘मस्ती एक्सप्रेस’ में थी। दरअसल कुछ देर बाद फिल्म अपनी थीम से भटक जाती है और सारा फोकस फिल्म में होने वाली रिक्शा चालकों की रेस पर शिफ्ट हो जाता है। संभव है कि निर्देशक और लेखक ने कमर्शियल पहलुओं पर ध्यान देते हुए फिल्म को मनोरंजक बनाने के लिए रेस पर ज्यादा ध्यान दिया हो, लेकिन दोनों प्रसंगों को यदि अच्छे से जोड़ा जाता तो बात ही कुछ और होती।

रिक्शा चालक राजू (राजपाल यादव) अपने बेटे को महँगे स्कूल में पढ़ाना चाहता है, लेकिन उसकी हैसियत को देख स्कूल में एडमिशन नहीं दिया जाता है। इसके बाद राजू एक रिक्शा रेस में भाग लेता है, जिसमें पहला इनाम दस लाख रुपए का है। राजू को विश्वास है कि यह रेस जीतकर वह अपने और परिवार वालों के सपनों को पूरा कर पाएगा।

इस रेस का आयोजन वीरू (जॉनी लीवर) करता है, जो मुंबई ऑटो रिक्शा यूनियन का लीडर है। वह 'भाई' किस्म का आदमी है और इस रेस को जीतने के लिए साजिश रचता है। कैसे राजू रेस जीतने में कामयाब होता है, यह फिल्म का सार है।

राजू बिना रेस जीते भी इतना सक्षम रहता है कि अपने बेटे का एडमिशन बढ़िया स्कूल में करवा सके। वह कोशिश भी करता है, लेकिन प्रिंसीपल मना कर देता है। तब उसे ऐसा क्यों लगता है कि वह रेस जीत जाएगा तो उसके बेटे को एडमिशन मिल जाएगा। और उन लोगों का क्या होगा, जो रेस नहीं जीत पाते हैं और चाहते हैं कि उनके बच्चे भी अच्छी स्कूल में पढ़ें। यहाँ पर लेखक की चूक महसूस होती है।

वीरू रेस में हिस्सा क्यों ले रहा है, इसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं दिया गया है। यह दिखाया गया है कि वह दस लाख रुपयों के लिए ऐसा करता है जबकि वह गैर कानूनी तरीके से और रेस में शामिल होने वालों से एंट्री फीस के रूप में लाखों रुपए कमाता है। फिर भी मनोरंजन की दृष्टि से वीरु और उसके चमचों के बीच के और रेस के कुछ दृश्य हँसाते हैं। संवादों के कारण भी कुछ सीन अच्छे बन पड़े हैं।

निर्देशक विक्रम प्रधान को बहुत कम बजट में काम करना पड़ा और उनकी समस्या को समझा जा सकता है। उन्होंने कुछ दृश्य अच्छे फिल्माए हैं, जैसे राजू का अपनी बीवी से झूठ बोलना कि उसके बच्चे का एडमिशन हो गया है, जब राजू का रिक्शा टूट-फूट जाता है तब उसे घर लाने वाला दृश्य और उसके बाद दिव्या दत्ता का रिएक्शन। यदि स्क्रीनप्ले से उन्हें मदद मिली होती तो वे फिल्म को और बेहतर बना सकते थे। उन्होंने अपने कलाकारों से अच्छा अभिनय लिया है।

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रिक्शा चालक की भूमिका में राजपाल यादव जमे हैं, हालाँकि उनका अभिनय दोहराव का शिकार हो रहा है। उनकी पत्नी के रूप में दिव्या दत्ता का अभिनय उल्लेखनीय है। जॉनी लीवर का अपना एक स्टाइल है और उन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। उनके साथियों के रूप में रज्जाक खान और विजय पाटकर गुदगुदाते हैं।

फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है। गानों को बिना सिचुएशन के रखा गया है। कश्मीरा पर फिल्माया गया गीत कुछ दर्शकों को पसंद आ सकता है।

कुल मिलाकर 'मस्ती एक्सप्रेस' में एक उम्दा फिल्म बनने की संभावना थी, जिसका पूरा दोहन नहीं हो सका, लेकिन मनोरंजन की दृष्टि से यह फिल्म एक अच्छा टाइम पास है।

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