बॉलीवुड में हीरो/हीरोइन बनने का सपना आँखों में लिए कई लोग मुंबई में कदम रखते हैं। फिर सामना होता है हकीकत के कड़े धरातल से, जिससे टकराकर ज्यादातर लोगों के सपने बिखर जाते हैं। फिल्मी दुनिया बाहर से जितनी सुनहरी दिखाई देती है, दरअसल उतनी है नहीं।
जावेद अख्तर की बेटी ज़ोया अख्तर की फिल्म बॉलीवुड की हकीकत को दिखाने का प्रयास है। जिस तरह मधुर भंडारकर अपनी फिल्मों के जरिये पोल खोलते हैं, कुछ वैसा ही प्रयास ज़ोया ने किया है। एक तरफ उन्होंने जहाँ कलाकारों का स्ट्रगल दिखाया वहीं दूसरी ओर बॉलीवुड के लोग कैसे होते हैं, किस तरह वे अपना काम करते हैं यह ‘लक बाय चांस’ में देखने को मिलता है।
सोना (कोंकणा सेन शर्मा) की ख्वाहिश टॉप एक्ट्रेस बनने की है, लेकिन मजबूरीवश उसे छोटी-छोटी भूमिकाएँ कर गुजारा करना पड़ता है। विक्रम (फरहान अख्तर) भी फिल्मों में किस्मत आजमा रहा है। वह बहुत स्मार्ट है और कब क्या करना है अच्छी तरह जानता है। विक्रम और सोना की मुलाकात होती है और दोनों में प्यार हो जाता है।
रॉली (ऋषि कपूर) सफल निर्माता है और बड़े सितारों के साथ फिल्म बनाना पसंद करता है। निक्की (ईशा श्रावणी) को लेकर वह एक फिल्म बना रहा है, जिसमें सुपर स्टार ज़फर खान (रितिक रोशन) नायक है। निक्की की माँ नीना (डिम्पल कापडि़या) 70 के दशक की सुपरस्टार रह चुकी हैं।
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हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि विक्रम की किस्मत चमक उठती है। फिल्म में ज़फर खान की जगह विक्रम ले लेता है और आगे बढ़ने के लिए वह सोना को भी धोखा देने से बाज नहीं आता, जिसने संघर्ष के दिनों में उसका साथ दिया था।
ज़ोया अख्तर ने स्क्रिप्ट अच्छी लिखी है। हर चरित्र की अपनी कहानी है, जिसके जरिये हिंदी फिल्म उद्योग की झलक मिलती है। रितिक रोशन के रूप में सुपर स्टार की घबराहट देखने को मिलती है, जो अपनी इमेज के विपरीत काम करने से डरता है। रॉली (ऋषि कपूर) एक ऐसा निर्माता है, जो हर समय झूठ बोलता है और श्रेय लेते समय सबसे आगे रहता है। उसके लिए फिल्म की कहानी के बजाय स्टार ज्यादा महत्व रखते हैं। डिम्पल कापडि़या के रूप में उन अभिनेत्रियों की झलक मिलती है जो अपनी बेटी को इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए क्या-क्या नहीं करतीं। संजय कपूर जब हीरो के रूप में नहीं चले तो निर्देशक बन गए क्योंकि वे निर्माता के भाई हैं। ईशा श्रावणी प्रतिभाहीन हैं, लेकिन माँ की वजह से अभिनेत्री बन गईं।
इसके अलावा कॉरपोरेट का बढ़ता दखल, फिल्मों में लेखक की भूमिका, सितारों का रोमांस, फिल्मी पत्रकारों की भूमिका, कलाकारों का बनावटी जीवन जैसे कई मुद्दों को अपनी फिल्म में ज़ोया ने समेटा है।
निर्देशक के रूप में भी ज़ोया प्रभावित करती हैं। कहने को तो ये उनकी पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी से कम नहीं है। एक दृश्य को दूसरे से खूबसूरती के साथ जोड़ा गया है। अनेक बार एक ही दृश्य में कई बातें साथ उभरकर आती हैं। मसलन हीरो-हीरोइन बात कर रहे हैं और पृष्ठभूमि में जूनियर कलाकारों से कैसा बर्ताव हो रहा है, ये एक ही फ्रेम में दिखाया गया है।
जो बात खटकती है वो है फिल्म की लंबाई और धीमी गति। चूँकि ज़ोया ने फिल्म लिखी भी है, इसलिए वे कई दृश्यों को हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं। फिल्म का संगीत भी निराशाजनक है और फिल्म देखने समय खलल उत्पन्न करता है।
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अभिनय में सारे कलाकार पूरे फॉर्म में नजर आए। कोंकणा सेन शर्मा ने एक और पॉवरफुल परफॉर्मेंस दिया है। सफलता को पाने के लिए अवसर पैदा करने वाले और स्वार्थी आदमी की भूमिका फरहान ने कुशलता से निभाई है। ऋषि कपूर और डिम्पल कापडि़या तो अपने किरदार में घुस गए हैं। जूही चावला, रितिक रोशन और संजय कपूर का अभिनय भी अच्छा है।
फिल्म में बॉलीवुड के कई स्टार कलाकार छोटी-छोटी भूमिकाओं में हैं, लेकिन शाहरुख खान अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं। जावेद अख्तर के संवाद उल्लेखनीय हैं।
‘लक बाय चांस’ को देखने का मजा वो लोग ज्यादा ले सकते हैं, जो बॉलीवुड को नजदीक से जानते हैं।