लागा चुनरी में दाग : एक महिला की यात्रा

समय ताम्रकर
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : प्रदीप सरकार
संगीत : शांतनु मोइत्रा
गीत : स्वानं‍द किरकिरे
कलाकार : रानी मुखर्जी, कोंकणा सेन शर्मा, जया बच्चन, अभिषेक बच्चन, कुणाल कपूर, अनुपम खेर, हेमा मालिनी, टीनू आनंद
रेटिंग : 3/5

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प्रदीप सरकार द्वारा निर्देशित ‘लागा चुनरी में दाग’ एक नारी के त्याग और समर्पण की कहानी पर आधारित फिल्म है। पेंशन से मोहताज पिता (अनुपम खेर)। उसकी दो बेटियाँ बड़की (रानी मुखर्जी) और छुटकी (कोंकणा सेन शर्मा)। माँ (जया बच्चन) रात-रातभर कपड़े सिलकर किसी तरह पैसा कमा रही हैं, लेकिन खर्चा ज्यादा है।

पिता को लगता है ‍कि यदि उनका बेटा होता तो शायद उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता। बड़की को यह बात बुरी लगती है। वह बनारस से मुंबई जाने का फैसला करती है। दसवीं पास बड़की को कोई नौकरी नहीं मिलती।

हारकर वह अपने जिस्म का सौदा कर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करती है। बड़की से अब वह नताशा बन गई है। परिवार में बड़की की माँ को छोड़कर सब इस बात से अनभिज्ञ है। छुटकी पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी करने के लिए मुंबई आती है और बड़की का राज खुल जाता है। थोड़े से उतार-चढ़ाव के बाद सुखद अंत के साथ फिल्म समाप्त होती है।

इस तरह की कहानी पर कई फिल्में बन चुकी हैं। आगे क्या होने वाला है इसका अनुमान लगाना दर्शक के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। कहानी की सबसे कमजोर कड़ी है रानी मुखर्जी का अचानक वेश्या बन जाना। क्या संघर्षों से घबराकर इस तरह का रास्ता अपनाना चाहिए? उसके सामने इतने मुश्किल हालात भी नहीं थे कि उसे इस तरह का कदम उठाना पड़े।

कई लोगों को बड़की की माँ का स्वार्थीपन भी अखर सकता है। बड़की मुंबई में असफल होकर वापस बनारस आना चाहती है। वह अपनी माँ को यह भी बताती है कि यहाँ उसे घिनौना काम भी करना पड़ सकता है, लेकिन उसकी माँ की खुदगर्जी आड़े आ जाती है। उन परिस्थितियों में उसके लिए पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। हालाँकि यह दिखाया गया है कि उस समय बड़की की माँ परेशान रहती है, लेकिन इतनी बड़ी बात को वह यह कहकर नहीं टाल सकती कि बेटी अब तुम सयानी हो गई हो, यह निर्णय तुम करो।

कहानी चिर-परिचित जरूर है, लेकिन परदे पर इसे बेहद खूबसूरती के साथ प्रदीप सरकार ने पेश किया है। छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये उन्होंने चरित्रों को बखूबी उभारा है। उनके द्वारा फिल्माए गए कुछ दृश्य दिल को छू जाते हैं। उम्दा प्रस्तुति के कारण फिल्म दर्शकों को बाँधकर रखती है। विवान और छुटकी की नोकझोक के जरिये आधुनिक भारतीय महिला की अच्छी व्याख्या की गई है।

रेखा निगम द्वारा लिखे गए संवाद चरि‍त्र को धार प्रदान करते हैं। जब बड़की के वेश्या होने का पता छुटकी को लगता है तो वह ग्लानि से भरकर कहती है कि हम तुम्हारी चिता से अपना चूल्हा जला रहे थे।

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पूरी फिल्म रानी मुखर्जी के इर्दगिर्द घूमती है। रानी का अभिनय शानदार है। उनकी आँखों के जरिये ही चरित्र की सारी मनोस्थिति बयाँ हो जाती है। कोंकणा सेन तो नैसर्गिक अभिनेत्री हैं, लगता ही नहीं कि वो अभिनय कर रही हैं। अभिषेक बच्चन का रोल छोटा है, जो शायद उन्होंने संबंधों की खातिर अभिनीत किया है।

कुणाल कपूर थोड़े नर्वस लगे। जया बच्चन ने अपने चरित्र की सारी बारीकियों को समझकर अच्छी तरह से पेश किया है। हेमा मालिनी और कामिनी कौशल जैसी पुरानी नायिकाओं को देखना भी अच्छा लगता है। अनुपम खेर, सुशांत सिंह और टीनू आनंद ने भी अपना काम ठीक तरीके से किया है।

शांतनु मोइत्रा का संगीत सुनने लायक है। स्वानंद किरकिरे ने उम्दा बोल लिखे हैं। ‘हम तो ऐसे हैं भइया’ सबसे बेहतर गीत है। इस गीत का फिल्मांकन भी उम्दा है। सुशील राजपाल ने बनारस को बेहतरीन तरीके से फिल्माया है। फिल्म की प्रत्येक फ्रेम खूबसूरत है। फिल्म साफ-सुथरी है और पारिवारिक दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। उम्दा प्रस्तुतिकरण और शानदार अभिनय के कारण इस फिल्म को देखा जा सकता है।
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