शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर
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बैनर : इरोज इंटरनेशनल, एसएलबी फिल्म्स
निर्माता : संजय लीला भंसाली, सुनील ए. लुल्ला
निर्देशक : बेला सहगल
संगीत : जीत गांगुली
कलाकार : बोमन ईरानी, फराह खान, कविन दवे, शम्मी, डेजी ईरानी
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 52 मिनट
रेटिंग : 1.5/5

यदि किसी की उम्र तीस या चालीस के पार हो गई हो और शादी नहीं हुई हो तो उसका बड़ा मजाक बनाया जाता है। उसकी पीठ पीछे लोग इस बात को लेकर खूब हंसते हैं। उसमें कमियां ढूंढने का प्रयास करते हैं। वह जहां भी जाता है, उससे ये बात जरूर पूछी जाती है कि खुशखबरी कब सुना रहे हो।

‘शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी’ के हीरो फरहाद का भी यही गम है। 45 का होने आया है और शादी नहीं हो पाई। ब्रा-पेंटी की दुकान पर सेल्समैन है। कभी शादी की बात चलती भी है तो उसका काम सुन लोग भाग खड़े होते हैं। भला ये कैसा काम है? अंडरगारमेंट पहनते सभी हैं, लेकिन उसके बारे में बात करने से हिचकते हैं।

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40 वर्षीय शिरीन उसकी दुकान पर आती है और फरहाद को उससे प्यार हो जाता है। प्यार की कोई उम्र नहीं होती है, लेकिन हमारे यहां यदि 45 वर्ष का अधेड़ इश्क लड़ाए तो उसे बुरा माना जाता है। फरहाद कहता भी है कि प्यार की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती, यह कभी भी हो सकता है।

शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि फिल्म शुरू होने के कुछ देर बाद यह ट्रेक से उतर जाती है और एक औसत प्रेम कहानी बन कर रह जाती है। इस प्रेम कहानी की विशेषता सिर्फ ये है कि इसमें प्रेम करने वाले फोर्टी प्लस हैं, यदि बीस के भी होते तो कहानी पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। कंसेप्ट को ठीक तरह से डेव्हलप नहीं किया गया है। दो प्रौढ़ इंसानों की लव स्टोरी में कॉमेडी का अच्छा-खासा स्कोप था, जिसका पूरा उपयोग नहीं किया गया है।

कहानी में विलेन है फरहाद की मां। शिरीन को वह इसलिए पसंद नहीं करती क्योंकि उसने फरहाद के पिता द्वारा बनाई गई टंकी तुड़वा दी। यह टंकी फरहाद के घर पर बनी थी। नफरत करने का यह बेहद बेतुका प्रसंग रचा गया है और इसके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती है। कहानी की नींव कमजोर होने से दर्शक कभी भी फिल्म से जुड़ नहीं पाता।

साथ ही शिरीन-फरहाद की लव स्टोरी में कुछ उम्दा, कुछ उबाऊ और कुछ बचकानी बातें हैं। कई जगह उन्हें ऐसे दिखाया गया है जैसे वे टीन-एजर्स हों। फिल्म का संगीत अच्छां है, लेकिन गानें फिल्म में पैबंद की तरह चिपकाए गए हैं।

हाल ही में ‘फेरारी की सवारी’ में सेंट्रल कैरेक्टर्स पारसी थे, इस फिल्म में भी सारे किरदार पारसी हैं। आमतौर पर फिल्मों में पारसियों को कैरीकेचर की तरह पेश किया जाता है। निर्देशक बेला सहगल ने अपने मैन कैरेक्टर्स को इससे बचा कर रखा है, लेकिन पारसियों की मीटिंग में लड़ने वाले लोग कार्टून नजर आते हैं। एक पारसी बूढ़े का किरदार अच्छा है जो इंदिरा गांधी का दीवाना है और उनसे शादी करना चाहता है।

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निर्देशक के रूप में बेला सहगल का पहला प्रयास अच्छा है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के चलते वे चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं। कई जगह हंसाने की असफल कोशिश साफ नजर आती है।

बोमन ईरानी ने फरहाद के किरदार को विश्वसनीय तरीके से पेश किया है। फराह खान कुछ दृश्यों में असहज लगीं और उन्होंने खुल कर एक्टिंग नहीं की। डेजी ईरानी और शम्मी ने फरहाद की मां और दादी मां के रोल बखूबी निभाए।

कुल मिलाकर ‘शिरीन फरहाद की लव स्टोरी’ में रोमांस और हास्य का अभाव है।

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